सांझा या पाखण्ड - तृषित

श्रीहरि या श्रीगुरुवर जिन्हें भाव-सांझा (प्रचार) हेतु चुनते है । उनसे चूक नही होती क्योंकि वह सेवार्थ सेवामय होते है उनकी अपनी स्थिति में सांझा हेतु सामर्थ्य अथवा क्षमता आदि नही होता । भगवदीय प्रचार जब ही सम्भव है जब प्रचारक के चित्त में अपना तनिक प्रचार (यश-प्राप्ति) ना हो । जो भगवदीय सेवा के विपरित अपने पृथकत्व हेतु प्रचार करें वह ही पाखण्ड का स्वरूप बनता है । जैसा वर्तमान समय पर कई धार्मिक धारावाहिक आते है परन्तु इतना बडा मंच सुलभ होने पर भी हृदय में लोकार्थ स्वांग भर होता है । भगवदीय लीला में अपना निश्चित जीवन है । भगवत सँग को वास्तविक ना मानकर लोकरंजन के प्रति चेतना जब प्रवाहित होती है तब ही दुरी बढती है । धर्म या भक्ति पथ पर दृश्य स्थिति होने पर भी भीतर लोक होवें तब अपनी ओर से दुरी बढ रही होती है । लोक जीवन में दृष्ट हो परन्तु भीतर भगवतकरुणा या प्रेम हो अथवा भीतर सेवा हो तब जीवन दिखाई ना देने पर भी भगवतोन्मुखी होता है । जिस तरह किसी पद की राग ना जानने पर जो जानते हो उनके सँग सँग श्रवण से ही उल्लास होता है वैसे ही अपने निर्मलीकरण से पूर्व धर्म-भक्ति पथ की प्रचार सेवा सन्त चरणों से ही झरने की भावना होनी चाहिये । जो केवल मात्र भगवदीय अनुरागी हो और शेष के प्रति आसक्त ना हो तब ही सुन्दर लोकसेवा बन पाती है । जो स्वयं लोक में आसक्त हो वह लोकसेवा नही कर सकता । क्योंकि सेवार्थ सेव्य के भोग से मुक्त होना चाहिये जैसे गौ अपनी देह के भीतर बने दूध के प्रति आसक्त नही होती .. नदी अपना जल नहीं पीती । वृक्ष अपने फल नही खाते । और सन्तों का जीवन लोककल्याणार्थ ही होता है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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