स्वभाव लालसा की तृषा । तृषित
जिसे कुछ नही चाहिये होता उसे ही सब कुछ मिलता है । जिससे वह मिले हुये रस से सेवा कर सकें अपने प्राण पियप्यारी की । बहुत बार मिला हुआ दिव्य पारितोष सेवाओं में विघ्न बन जाता है सखी । सच में जिसे कुछ भी नही चाहिये वह ही भीगे हुये ललित कलित केलियों में सेवामय है ।
सो जैसे लोक में वस्तुओं के बाज़ार है । वैसे ही भाव पथ पर पथिक अगर भावों को वस्तु मानता है तो वह स्थिर नही हो पाता । भीतर का पथ अन्तरिक्ष की भाँति व्यापक विस्तरित है परन्तु निर्द्वन्द होकर लोकेष्णा-तृष्णा-भुक्ति-मुक्ति पार करके अपनी प्राणेश सेवा-लोलुप्ति से ही प्रकट होता है निज-भावदेश । परन्तु जब तक समग्र अपनी तृषा ना होगी तो किसी के पास कोई भावसेवा या वाणीजू या प्रसाद देख कहेगा मुझे भी चाहिये ... क्या सत्य में उसे अभीष्ट मान प्राण पुकार रहे थे अथवा केवल संग्रह वृति से ही वह चाह है ..फिर उसमें गोता ना लगाकर वह भावुक फिर अन्य के पास , अन्य कुछ पाकर कहेगा ...मुझे भी चाहिये । सो जिसे चाहिये वह मिलने वाली वर्षा को अनुभव नही करता , वरण वह सब पिया जावें जो चाह शेष अर्थात् इच्छा बिना मिल रहा होता है । क्योंकि जिसे सब कुछ (प्यारीप्यारे )की सेवा चाहिये वह मात्र सेवा ही स्वयं से अपेक्षित करता है । उसे स्वयं में बढती हुई सेवा-लालसा चाहिये होती है । नकल से नही चलना है , सखी । स्वभाव से रहना है । सबकी सेवा-श्रृंगार भावना अनुरूप कोई न कोई नवसेवा है , वही नवीन सेवा स्वभाव है , ज्यों वृक्ष के सभी फूल-पतों में नवीनता-भिन्नता है , एक ही जाति के प्राणी - प्राणी में नई पहचानें है , नयन पुतली - अंगुलियों आदि की छाप तक सबकी भिन्न है , यहाँ जो हमारे स्वभावों में अन्य से स्थिर (ध्रुव) कोई नवीनता है वह ही स्वभाव है । सखी का वह स्वभाव नित्य है और युगलार्थ है । जीव स्थिति पर भगवतप्राप्ति से भी दुर्लभ होती है स्वभाव की प्राप्ति । भगवतप्राप्ति की माँग तो सँग कृपा से सुलभ भी हो जाती है परन्तु स्वभाव प्राप्ति दुर्लभ है क्योंकि वह निजता (एकान्त) में मुखरित होता है । अपनी सेवा या अपनी श्रृंगार स्थिति अर्थात् महाभाविनी श्रीकिशोरी की स्वभाव से सेवा की लालसा नही प्रकट होती । "मैं" की खोज भी अध्यात्म में वही लेकर जाती है जहाँ तक का संकल्प हुआ है जैसा कि योगी का "मैं"एक समाधिस्थ "मैं" है जबकि भावरस सेवक का स्वभाव ही वह अभिष्ट है , जिससे वह चेतना नित्य प्राणाधार के नित्य लीलारस में सेवावृति है जबकि इहलोक चेतन को उस अपनी ही स्थिति का स्वप्न भी स्पर्श नही हुआ है, उस दुर्लभ निज स्वभाव को छूना ही स्वभाव लालसा है । सत्य में जिसे नित्य रस की उपासिका होना है ,उसे ही स्व-भाव की लालसा को अनुभव करना होता है । यह स्वभाव आपके किसी भी जीवन का वह भाव है जिसे आप मिटा नही सकते क्योंकि वह नित्य है और वह उस चेतना की स्वभाव वृति है । मयूर हियवर्षा उपरान्त नृत्य नही रोक सकता भले सन्मुख कोई हो या ना हो । वैसे ही कोई न कोई एक भावना सबमें नई होती है जिसे मिटाया नही जा सकता परंतु अपनी ही नित्य उस भावना का स्पर्श होगा रसिक कृपा से सुलभ श्रीयुगल की नाम माधुरी सँग या रसिक-पद माधुरी से अनवरत भीगने से स्वयं में उठती तरंगो को शीतल रख छूने पर ... यहाँ प्रति क्षण स्वयं में अपने प्रेमास्पद के सेवा सुखों की खोज होगी ज्यों लोक में प्राणी अपने प्राकृत स्वभाव को अनुभव कर अपने व्यापार आदि का चुनाव करते है । अपना ही मूल वह स्वभाव शान्त होता है जब तक जीवन युगलसेवा की तृषा (पिपासा) में डूबता नही है , क्योंकि नकल के कई कलाप भर लिये है हमने जैसा कि कोई अतिसंकोची हो सकता है तो कोई अति वाचाल , अब वाचाल का संग संकोची को रुग्ण करेगा क्योंकि वह उसके चेतन का अभिष्ट संग नही है । लोक में हम सबकी देह का परिचय होता है सबको प्राप्त नवीन हस्त-रेखा , हस्ताक्षर आदि से । आँखों की पुतली की भी नवीन संरचना जिन्होने की है , उन्होंने सबके अपने-अपने भाव की भी संरचना की है । अपने उसी स्वभाव को अनुभव कर स्वयं को उस स्वभाव में युगलार्थ सेवामय पाना है । युगल की जो नित्य भावसेवा जिस नित्य भावदेह से होती है वही आपका अपना स्वभाव है और यह स्वभाव की देह ही भावदेह है । जिस भाँति गुलाब और मोगरे की सुगन्ध से उनकी सेवात्मक नवीनता सिद्ध होती है । उसी भाँति सभी सखियों में नवीन सेवा-श्रृंगार है । यहाँ अगर किसी मंजरी की नेह सेवा है तो अनन्त सेविकाओं को अनुभव हो सकता है , निज भावकुँज में नेह सेविका होने का स्वभाव जैसे किसी फूल बँगले में अनन्त फूल होकर एक श्रृंगार करते है वैसे अति न्यूनतम भावाणु और कोटि सुखों से श्रीसखी सहित युगल में वह सेवाभावना पिरोई हुई सेवित रहती है अर्थात् ऐसा नहीं होता कि वह सेवा है ही नहीं नित्य रस में जो हमें अनुभव हो रही ...वह सेवा कुँज कुन्जेश्वरी सहित सेवित है और उन्हीं कुँज की सेवाझारी दासी होकर प्रवेश मिलता है । भावुक की भावना सिद्ध होने पर नित्य सेवा-सेविका वृन्द में वह भावबिन्दु समावेश पा जाता है जैसे श्रीहित सजनी अनुगमन होने पर हितमय होकर उनके श्रृंगार विलास की भावना से उस भावबिन्दु को सौभाग्य मिल जायेगा । युगल तृषित । जैसे ज्ञानमार्ग पर ब्रह्म सम्बंध तदाकार होता है वैसे उपासना मार्ग पर उपास्य स्वरूप की उपासना सुधा में भावबिन्दु मूल नित्य उपासना-उपासक (मूल-उपासक का भाव हृदय विलास ही उपासना है) स्वरूप में समाना चाहता है । निज स्वभाव प्राप्ति के दुर्लभ प्रयास को आचार्य रीति परम्परा अति सरल करने हेतु अवतरित होती है , रस रीतियों की शरण में लालयित भजनांदित को अपने सेवात्मक सुख सुलभ होने ही लगते है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
Comments
Post a Comment