अभाव तृषित
अपने अभाव अनुभव से ही महाभाव वर्षा की स्वाद लीला है ।
प्रपंच अभाव से विपरित अपने प्रभाव के बल पर खेल रखना चाहता है ।
अभाव जो कि है उससे छूटने की माँग ही प्रभावी तो बना सकती है परन्तु महाभाव को प्रभाव से छुआ नही जा सकता ।
अभाव का जो जितना पक्का अनुभवी होगा महाभाव उतना भीतर पकेगा ।
सहजता का अभाव भावपथिक की लाख बढाईयों (गुणों) को कुएँ में डाल देता है ।
सब गुणों का सार ही सहज अनुराग झरण होना है ।
अनुराग की स्निग्ध झरण ही सहज स्नेह है ।
शहद जैसे फूल से झरता है और माखन जैसे चिकनाई पकडे रहता है । वैसा स्नेह कामना की बिन्दु भर में नही रहता क्योंकि स्थूल होने पर प्रथम ताप सँग द्रवित होना होगा । ताप से द्रवित स्थिति कोमल पुष्प होकर खिलकर शीतल नेह से जब भीगती है तब स्नेह होता है । भीतर मधु अथवा नवनीत (माखन) के पिघलने और टपकने-सरकने से अनवरत भावरस का शीतल स्राव भीतर भरना स्नेह है । भीगा हुआ नेह । मिलता है यह सहज को । और सहजता मिलती है उसे जिसे कुछ भी नही चाहिये । (सहजता मिली हुई ही है ...बस माँग-कामना के अदृश्य होने हेतु इच्छाशक्ति घोषणा करें कि कुछ नही चाहिये ) तृषित ।
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