असमर्थ - तृषित
असमर्थ
हम सभी कितना ही अभिनय करें परन्तु हम समर्थ होना चाहते है , असमर्थ रहना नहीँ ।
विधान पुनः - पुनः और पुनः हमें असमर्थ ही सिद्ध कर देता है । क्यों ???
क्योंकि विधान में ही हमारा मंगल निहित है ।
अर्जित समर्थता तो सत्य में अंधकार की ओर ले जाती है ।
असमर्थता को स्वीकार करते ही विधान स्वयं अनिवार्य रक्षा करता है । इस देह का दुरुपयोग भी हम करें तो मंगलमय विधान नव देह बनाने लगता है । नया वस्त्र सजाने लगता है । असमर्थ , असमर्थ , असमर्थ । यही स्थिति सत्य है , सबका कह नहीं सकते क्योंकि बहुत शिद्दत से जीतने की होड़ मची हुई है सभी ओर । पर मैं सदा-सर्वदा हुँ असमर्थ ... क्योंकि यह असमर्थता समर्थ की दृष्टा है ।
असहजता की स्वभाविक मांग है सहजता
ऐसे ही असमर्थ की मांग है समर्थ ।
असमर्थता के मूल में अप्रयत्न है , और अप्रयत्न के मूल में भगवत् मंगल्य विधान । अप्रयत्न का अर्थ दैहिक कर्म निवृत्ति नहीँ , मानसिक कर्म निवृत्ति है । कर्त्ता बोध रूप से वास्तविक कर्त्ता को देखना । यह जान असमर्थता वह आभूषण हो जाती है जो समर्थ को ही वरण करती है । यहाँ असमर्थता भीतर हो बाहर नहीँ । बाहर वह शोषित होगी । हाँ केवल भगवत् भाव से भगवत् दर्शन ही हो तब वह शोषण भी कौतुक मयी लीला होगी , ऐसा किसी विशेष संग सम्भव है , व्यापक जगत् में भगवत् भावना नहीँ रह पाती और जैसे ही जगत् में भगवत् अनुभूति न रह कर जगत् का ही बोध होता है तब असमर्थता का जगत् अनुरूप परिणाम मिलता है , वहीँ किसी विशेष अथवा व्यापक जगत् से ही भगवत् भावना से रहना ही हो तब असमर्थता का भगवदीय परिणाम होता है ।
वास्तव में असमर्थ वास्तव में असमर्थ है तब निश्चित समर्थ भगवन् स्वयं उसका वरण करेगें , अपितु वरण हो चूका है । तब भी अपनी असमर्थता अटल रहें और उसमें कोई प्रपञ्च न हो तब वह भगवान को नित्य संग कर लेती है ।
नन्हें शिशु की असमर्थता यहीँ कहती है । स्वयं में समर्थ होने पर आधार भूत समर्थ का संग गौण होता है । असमर्थ को अहम् नहीँ छु सकता । असमर्थ सूर्य भी निगल सकता है और यह भी असमर्थता ही कही जायेगी , इसमें भी स्वयं का समर्थ दृश्य नहीँ होगा । तृषित ।। जयजय श्रीश्यामाश्याम ।।
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