दृगबिन्दु - तृषित

दृगबिन्दु

थे अमिट अन्तर-सँग
धावक झरते देख हिय-रँग

अब लुप्त-गुप्त छिपे रहे
रहता सिमटता चित्त अनंग

निर्धन सेवक क्या करें व्यय
चोरी होता निजधन ...

कहाँ रहता है दृग तेरा
झरती झारी का वह अश्रुकण

थे कभी दो ही नयन
अब रोम रोम दौड पडे पीने निहारन
दृगबिन्दु छू कहाँ आते होते हो जब होते शीतल सुरभित स्वेदझरण
--- तृषित ।

(रोम रोम पुलकित होकर मधुता में शीतल होकर भीग जाता है ...दृगबिन्दु हो जाते जब स्वेदबिन्दु)

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