किसकी मोहब्बत - तृषित

किसकी मोहब्बत

सारा जहाँ मोहब्बत की अल-ए-ग़ज़ल पिला रहा
और है जिसे मोहब्बत वो इब्तिसाम पर अटक सुन रहा

मुहब्बत हो मुझे , इतना भी ख़्वाब-ए- आशियाँ ज़रूरत नहीँ
हैं उन्हें मुहब्बत बेइन्तहा मुझसे , यें बात किसी ने मानी ही नहीँ

मुझे नहीँ करनी है मुहब्बत , ओ मेरे बेचैन सनम तुमसे
है तुम्हें इतना हसीं इश्क़ फिर ख़ता क्यों और मुझसे

तुम्हें अपना बनाने के फ़ितूर से अच्छा हो
हो जाऊँ तुम्हारी , मेरा हर क़दम ही ऐसा हो

काश मैंने नज़र उठा कर तेरी आँखों की मस्तियों में मुहब्बत की हया देखी होती
फिर बहकती नहीँ साँसे , ना करती कोई और सवाल बस तेरे तबस्सुम होठों में सिमटी होती

बवाल उठता है जब फ़ितूर इस ओर कोई उठता है
उस ओर ज़रा नज़र उठा भी ग़र लेता कभी
हाय क्यों ? बेवजह मुझे यूँ आशिक़ी में वहतकता रहता है

इतनी मोहब्बत उस ओर झरती है , मैं तो हल्ले से अब कहता हूँ , मुझे इश्क़ नहीँ हुआ है
यें तो झोंका है किसी के शबनमी इरादों का बस मैंने उन आँखों पढ़ लिया है

जब तलक़ सोचा था होती होगी उनसे मुहब्बत हमें भी कहीँ न कहीँ
अब सिमटे है उनकी बाजुओं में इसमें कोई उल्फ़त हमारी थी ही नहीँ

इश्क़ न कीजिये उनसे , बस उनकी मुहब्बत को क़ुबूल ही कीजिये
एक शहंशाहे दिले-तरन्नुम ने इस ओर फिर अपनी मुहब्बत को देखा है

उसमें इस क़दर इश्क़ भरा है खूबसूरत उसकी रुहाआफ्ज़ का
वो देखता है जहाँ ..वहीँ दिखती है वहीँ , फिर लुफ़्त उठा लीजिये उनकी निग़ाह का

जिसे ख्वाबे फुरकत में भी इश्क़ महकता दिखता है
ऐसा सच्चा वो आशिक़ दबी हँसी से हर इल्म को आँखों से पीता है

चुभती होगी मेरी बात आज इस इश्क़ के समन्दर में डूबी हर कश्ती को
करूँ क्या पर ? नज़रे आतिश के ही हम उनमें शिकार थे हुए , हमने इश्क़ तो अब भी उनसे किया ही नहीँ ...

और बडा रहनुमा अहसास आज है हुआ
ग़र हो जाता जो इश्क़ उनसे , उनकी मुहब्बत को फिर न होता छुआ ...

यहाँ हर कोई अपनी सोख और रूखीयत से उछलता है
बस ज़रा देख भर लीजिये कौन साँसो में जीता है और कौन छिपकर मरता है

यें ज़माना अल्फ़ाज़ों के शौर से ही वाकिफ है
किसी की हयाते ख़ामोश हँसी बाद उठते लफ्ज़ सुनते ही नहीं

हमें लगता है वो मुस्कुराकर कुछ और कहेंगे भी
और फिर कह कर अपनी नज़रों की तासीर को होठों पर लाएंगे भी

पर मेरे अंदर का शौर वो सुनने में इतने मश्गुल हुए ...
जो ना कहा था कभी हमने , उसे भी कहीँ सुनने लगे

इश्क़ की आँधी में एक ही पैमाना होता है
दो ज़ाम कहाँ रहते , ख़ाली पैमाने में नशा उतरना होता है

ग़ौर से दीदार कीजियेगा कौन ख़ामोश है और कौन हुआ फ़ना हर क़तरे में
सवालों से नहीँ , एहसास से जब निग़ाह गिरेगी जहाँ , एक ही आशिक़ मिलेगा वहाँ

इश्क़ में किसी ने खूबसूरत जहाँ यूँ ही बख़्श दिया
सजा दी महफ़िलें , हर लिबास को रँग दिया

सरगोशी से इतना उतर गया , अंदर बाहर वहीँ छलक गया
फिर भी ग़र रहूँ जब तक "मैं" मुझे बना कर मुझमें सिमट गया

"तृषित" ग़र जो ख़ामोश हो , तूने ख़ुद को नापा होता
उतरता अपने लिबास में ...हर धागा किसने सिला देख लिया होता
---  तृषित ---
जाम= प्याला , अल= कला, इब्तिसाम= मुस्कुराहट ,

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