इस देह ने हमे मुर्ख सिद्ध कर दिया है , तृषित

इस देह ने हमे मुर्ख सिद्ध कर दिया है ।
मन और आत्मा भले अपने प्राणों के चरणों में अभिन्न हो न्यौछावर की तरह पड़ी रहे । परन्तु देह रूपी दुरी ही हमें स्मृति में रहती है ।
मन और प्राण सदा प्राण प्यारी और प्यारे में डूबे हो , पर देह मात्र की दुरी हमें व्याकुल करती रहती है ।
ईश्वर की दृष्टि में मिलन रस मन और प्राणों का ही है । आत्मा से मिलन हो । मन से पृथकता का चिंतन न हो। मन उनका हो , आत्मा उनमे हो । और यह सब कल्पना नहीँ है ... वास्तव में सब उनसे ही तो प्रकाशित है । हमारा प्रति भाव , प्रति पग पग । परन्तु देह रूपी विरह ही आज हमें स्मृत क्यों रहता है ? आज हम मन और आत्मा से अपने वास्तविक स्वरूप से क्यों नही मिलना चाहते उनसे । क्यों देह रूपी बाधा को हम जीते है जबकि आत्मा के नित्य श्री युगल में सेवायत होने को हम क्यों नहीँ अनुभूत करते है ।
क्या देह से भगवत मिलन ही सार है हमारे लिये ?
क्या देह मात्र वह सुख है हमारे ।
वह तो आत्मा की तृप्ति और पुष्टि के सार है और आत्मा सदा उनसे प्रकाशित है ही । उनसे अभिन्न है ही ।
मन अन्यत्र अगर देह रूप संग में भी कही भागता फिरा तो ...
क्या हम मंदिर में श्री विग्रह में हमारे मन को डुबा पाते है या देह मात्र मंदिर में हो हम यहाँ वहाँ होते है । अस्तित्व तो प्राणों से प्राणों के मिलन का है । देह मात्र का विरह है , और वास्तविक प्रेम होने पर देह से सम्बन्ध न होने पर सर्वत्र एक वही सत्य रूप ईश्वर हमारे संग है ...
तृषित ।।

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