तृषित कथा क्यों

कारण -- युगल गान रस से सजीव जीवन अनुभूति

लोभ -- अधिकतम रस डुबकियाँ

दक्षिणा -- जिसे हृदय छुये ... भगवत नाम

स्वार्थ -- विष जगत और विषय से अधिकतम छुटकारा हो

कामना -- किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊँ ...

हमें रस निधि की चिंता है   ...    भौतिक आवश्यकता ईश्वर जानें  ...

नोट - एक समय एक सज्जन को कहा कि दक्षिणा युगल नाम में डूबी वृंदा जु और जो युगल चाहे तो उन्होंने सम्पर्क इसलिये नहीँ किया क्योंकि सस्ता लगा । आज 5 रुपये में हम पानी की बोतल भी नकली मानते है ... तो कोई निःस्वार्थ भगवत चिंतन करें तो ... क्योंकि आज पैकेज से पता चलता है कौन बड़ा है । धर्म को माया नहीँ श्री लक्ष्मी जु स्वीकार्य है । माया अनीति का धन है ।

इस देश को बार बार किसानों ने संभाला है वह ही धर्म को सम्भालेंगे क्योंकि धर्म और नीति का धन उनके पास है शेष तो सब कही न कही टोपी पहनाई हुई माया है । वास्तविक धर्म रूपी नारायण की सेवा लक्ष्मी ही करती है ।

आज सत्संग में करोड़ो रुपये व्यय का फेशन है ... निर्मल सत्संग हो नही पाते और अरबपतियों के वक्ता से सामान्य जन टीवी पर ही संतुष्ट हैं ।
भगवत पथ पर प्रसिद्धि और प्रलोभन विषमयी

हमें सिंगापुर ... मॉरीशस ... लॉस ऐंजिल में कथा लोभ नहीँ सामर्थ्य है तो अधिकतम ब्रज और अवध क्षेत्र से हमारा स्पर्श हो ।
पानी के जहाजों पर शास्त्र चिंतन होता है ... जबकि जलयात्रा एक अपराध है ... आवश्यकता में करनी हो तो प्रायश्चित भी किया जाये आज जलयान पर कथा का फैशन है ।
क्या वर्तमान भगवत अनुरागी इतने गहन निर्मल है कि करुणा से सर्वत्र भगवत कथा करते है ।
क्या कथा के नये-नये आधुनिक यजमान भगवतपोथी स्पर्श से पहले व्यसन और आहार शुद्धि का संकल्प कर चुके है ।
या हम कानून व्यवस्था की तरह सुहृदय हो जाते है जो अपराधी से आशा करते है भगवतगीता स्पर्श मात्र से वह सत्य ही कहेगा ... कह देगा मैंने हत्या की और दुष्कर्म किये ।

हमें गौशाला भी नहीँ बनानी हाँ हर घर में गौ हो यह भाव अवश्य है । और जीवन में शीघ्र निवृत हो ...कभी किसी छोटी गौ शाळा में गौ के स्पर्श सुख को अनुभूत करना है ।
गौशाला के नाम से मांगने की क्यों आवश्यकता होती है ... जिसे देना है वह स्वयं किसी भी गौशाला में दे आयेंगे लगभग सभी सच्ची गौशाला धन अभाव में है यह सबको पता है । कथा में गौ निमित्त माँगने पर वह धन ही अनावश्यक टेंट आदि पर भी जाता है ... कथा से सात्विक जीव को अधिक लाभ हो , विषयी को नहीँ ।।।
गौ सेवा के निमित्त हमें चमड़े का उपयोग रोकना है ।।।
हाँ कोई गौशाला हमें भगवत रस के लिये कहे तो हम अपनी और से गौ सेवा भाव से ही रस सेवा करें ऐसी बुद्धि विधाता दे ।
परन्तु आज भौतिकवाद बहुत गहरा गया है , भावना है कि तुलसी पत्र और साहित्य आदि ही व्यासपीठ पर अर्पण की जावें , हमें पूर्व में सूचित किया जाये तो कुछ साहित्य रूप प्रसाद का वितरण भी हो ।
विगत एक कथा आयोजन में व्यासपीठ पर आये सभी द्रव्य को एक आयोजक ने बड़ी सुन्दर नीति से निज हेतु में लेगये। यह बुराई नहीँ बल्कि ठीक ही कि वस्तु का सदुपयोग हो ।
परन्तु भगवत कथा को बाज़ार से मंदिर बनाने में हम आंतरिक असफलता से व्याकुल रहें । अतः काश कोई तुलसी सद् साहित्य के अतिरिक्त कुछ अर्पण न करें जिससे किन्ही को भी लोभ न हो सकें ।
इतने धार्मिक आयोजन इस देश में होते है भगवत अनुराग क्यों नहीँ होता क्योंकि चरण अनुराग की भावना से दोनों और से अभाव है । व्यास पीठ भावना करे भी तो जन मानस स्वीकार ही नहीँ करता सप्त दिवस में यह विषयी चित्त पूर्णतः भगवान की हो जायेगी ।
भगवत उत्सव से चित्त में अटल अनुराग की जाग्रति नहीँ होती तो हमें फिजूल खर्च बन्द कर देना चाहिये । लाखों श्रोता हो यह आवश्यक नहीँ ... एक वास्तविक श्रोता हो और लाखों में अगर 5 या 10 लोग ही सच्चा लाभ लें तो हम पूर्व में ही क्यों नहीँ कह देते कि जिन्हें सच में राम का संग करना हो वह आवें । व्यर्थ खर्च से लोकहित नहीँ होता ... इस देश में सभी लोग भोजन करके आज भी नहीँ सोते स्मरण रहें हमें । फिर 5 या 10 लोगों हेतु ही आयोजन हो ।

सत्संग दर्शन की लालसा में हो प्रदर्शन के लिये देश में होटल भी बहुत है ।
क्या हम जो हो रहा है उसे बदल पायेगे । या पाखण्ड हमें निगल जायेगा । पाखण्ड का परिणाम रावण है मानस में प्रतापभानु कथानुसार और धर्म और त्याग का परिणाम राम है । सत- संग == राम का संग

एक यात्रा राम तेरे भरोसे ... ... ...

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