कमल और कीचड़ , तृषित

कमल और कीचड़ में भेद समझ आता है न हमें ।
वही रस और काम में है ।
सौन्दर्य सौरभ और उचिष्ट दुर्गंध में ...
युगल रस कमल वत है ।
हमारी बुद्धि में कीचड़ को अर्थात काम प्रेम समझ लिया है ।
कीचड़ में कमल का सौदर्य निहित परन्तु वह गाढ़ता और सूर्य के ज्ञान रूपी प्रकाश से सम्भव ।
रस का अधोगमन काम है , हमने रस को को अधोगमित कर उसे काम समझ लिया है ।
योग में रस हृदय से नाभि फिर मस्तिष्क तक जाता है । मस्तिष्क में शीतल तरलता रहती है ।
रस में हृदय पर रहता है हृदय द्रवीभूत तरल होता है ।
काम में रस च्युत हो होता ,अर्थात व्यर्थ ।
भगवान अच्युत है , प्रकृति पुरुष के अप्राकृत एकत्व में प्राकृत जगत विसर्गित होते । यह प्राकृत जगत और ब्रह्मांड है उन्हीं अप्राकृत दिव्य रसिक वर नित्य रसानन्दित पूर्ण ब्रह्म की पिपासा से रसमयता में विसर्गित रोम कूपों से स्वेद बिंदु भर । पसीने के कण भर । अब ये ब्रह्मांड जिसका स्वेद अणु हो उसमें एक परमाणु मात्र हम क्या रस समझेंगे । विसर्ग सृष्टियाँ भी
पूर्ण तत्व के मिलन में उसमें समा जाती है । जिसे हम प्रलय कहते है ।  सृष्टि की प्रलय का पता नहीँ कब हो ... स्व को प्रलय करना होगा ... पूर्ण की लय में ।
--- तृषित ---

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय