जीवार्थ से आत्मार्थ सृष्टि तक , तृषित

हमारे प्रभु जी को दो तरह से सृष्टि करनी होती है । जीवार्थ और आत्मार्थ । जीवार्थ सभी भुवन - लोक आदि है । आत्मार्थ उनकी स्व रस की सृष्टि है । आत्मार्थ है वह वृन्दावनीय निकुंज जहाँ वह अपनी स्वरूपभुता से प्रेमानन्द रस अनुभूत करते है । उनके इस निकुंज रस को भोग जगत ना तो स्वीकार कर सकता है , ना ही चिंतन । और निर्मल प्रेम होने पर जीव अपने जीवत्व का खंडन कर निकुंज परिकरों द्वारा सिद्ध भाव में प्रवेश कर वहाँ नित्य युगल प्रियालाल की सेवा में परायण हो सकता है ।
मुक्ति आदि का लोभी भी जीवार्थ सृष्टि तक जाता है दिव्य लोक आदि में , मुक्ति की भावना भी भोग भावना है ।
परन्तु निकुंज रस में केवल प्रेम से ही स्पर्श अनुभूति सम्भव है । इसमें इतना प्रेम चाहिये कि जैसे जीवार्थ जो सृष्टि है उसमें हम कामना करते है और वह ही लीला ईश्वर करते है भले इससे उन्हें कष्ट ही हुआ हो परन्तु मनोभाव की सिद्धि के लिये वह सहज सब संकल्प सिद्ध करते है । वैसे ही ऐसे भाव स्वरूप की आवश्यकता उनके इस आत्मार्थ निकुंज रस में चाहिये जो चिंतन - संकल्प - मनन - चाह सब करें उनके ही सुख हेतु । स्व सुख का लोभी यहाँ नहीँ आता । यहाँ वह भाव स्वरूप आते है जिन्हें प्रियतम का सुख ही यथेष्ट हो । जीवार्थ सृष्टि में जीव स्वार्थ में अधिकतम ईश्वर की भावना के विपरीत ही जीवन व्यय करता है । इससे उन्हें बाह्य रूप से तो हर्ष रहता है क्योंकि वह प्रेमी होने के नाते जीव की भावना को पूरा करने को व्याकुल है । परंतु उनकी भी कोई भावना है यह जब प्रकट होता है जब स्वार्थ का त्याग हो । फिर धीरे धीरे उनके भाव सन्मुख होते है । शरणागत सन्तों का जीवन ईश्वर की इच्छा का जीवन है । रामराज्य का स्वरूप भी कहता है ईश्वर ने द्वेत की सृष्टि नहीँ की , वह आनन्द रचते है दुःख-सुख नहीँ । रामराज्य में पूर्णतः पुष्टि और आरोग्यता है जो कहती है कि यह उनकी भावना है । वस्तुतः आश्रय के त्याग से ही विकार होने लगते है । राम राज्य में सहज स्वीकार है कि हमारे सर्वस्व राम है ।
ईश्वर जीवार्थ उसे अनुकूलता देने भी आते है और दुःख जिसे उन्होंने रचा ही नहीँ , उसे भी सहज पी लेते है । अब कोई कहे कैसे नहीँ रचा तो एक स्वार्थ के कारण जीव राम तक के विपरीत हो जाता है , प्रेम वश और शब्द सृष्टि की रक्षा के लिये असत को भी राम स्वीकार कर उसे सत कर देते है ।
अगर जीव विकार रहित हो तो उतना ही वह ईश्वर के लिये सहज सुख स्वतः प्रकट कर रहा है क्योंकि विकार आदि हेतु उन्हें असुर - दानव आदि का वध करना होगा और उसके लिये कष्ट भी उठाने होंगे । और असुर वृतियों को अर्थात हमारे विकारों को भी भस्म कर वह स्वयं में स्वीकार कर लेंगे उसका त्याग नहीँ करेंगे जैसे पूतना , ताड़का । यह सब हमारे ही विकारों की पराकाष्ठा है । जैसे रावण अहंकार की पराकाष्ठा । निर्मल हृदय प्रभु का चिंतन काम और कलुषित हृदय से सम्भव ही नहीँ । ईश्वर जब भी जीवन में प्रकट होते है या प्रकट लीला - व्यवहारिक लीला करते है तो भीतर एक चाह उनमे होती है निज धाम ले जाने की । जैसे चाह शून्यता हुई वह भावना वह सिद्ध कर देते है ।
स्मरण कीजिये संसार सदा जिन विकृतियो के लिये हमें त्यागता है ऐसे विकारों को भी शरणागत होते ही वह कहते है यह मेरा है । जैसे ताड़का आदि को कहते है तुम मेरी हो । हमारी शरणागति अगर पूर्णतः निर्मल होने से पहले हो तो हमारे समस्त धर्म और प्रतिफल के भोक्ता वह होते है , शरणागत वह है जिसका डैमेज ऑपरेटिंग सिस्टम अनइंस्टाल कर उसमें सुपर ऑपरेटिंग सिस्टम यानी उनकी भावना जीवन होता है । शरणागति डैमेज ऑपरेटिंग सिस्टम का फॉर्मेट स्टेज है । हमारे विकारों को भी वह अपना बना लेते है , उनके हृदय में परत्व है ही नहीँ । नित्य मंगल विकास वह रचना चाहते है । जीवन में घटा हर अमंगल यह सिद्ध करता है कि हमने उन्हें स्वीकार ही नहीँ किया । इन विषयों को विस्तार की आवश्यकता है ।
जीवार्थ से उनकी आत्मार्थ जो रस सृष्टि है उसमें सेवायत होने के लिये उनके प्रति अखंड , निर्मल , सहज , सरस , कोमल उनके सुख की लालसा से भरपूर प्रीत की आवश्यकता है ... यह सब भोगी और स्वार्थ जगत के लिये कठिन है और इस ही तत्सुख रस की पूर्णतम उन्हें रस प्रदान करने वाली भावना का नाम *राधा* है । तृषित ...

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