हिय पर उछलती लहर ... *हम* -- तृषित
हिय पर उछलती लहर ... *हम*
केवल वेणु कब पूर्ण होती जो तुम्हारे अधर ना होते पिय । ...अधर मेरे कब पूरे होते श्रीप्रिया जो हिय में झनक-खनक सी तुम छाई ना होती । ...मैं इस हिय निधि में कैसे कभी समाती.. जो तुम्हारे नैन मुझे निहार ना रहे होते । करुणापूर्ण-रसवर्षा जो ना होती क्या कोई नैन कोई निहार सकें हे कोमलांगी तुम्हें ....
तुम मुझमें हो प्रियतम तो मैं क्या नहीं हूँ ...
मैं तुममें हूँ प्रियतम तो क्या तुम मुझमें नहीं हो ...
तुम मुझमें ही हो ... तब क्या तुम तुममें नहीं हो ...
मैं तुम में ही हूँ ना ...तो क्या मुझमें केवल तुम हो
...अगर मुझमें तुम ही हो तो मैं क्यों अनुभव करती हूँ यहाँ अपना भी ।
तुम भी तो स्वयं में स्वयं पूर्ण नही हो ना ... मैं भी नहीं ...
तुम पूर्ण होते हो मुझमें ...मैं पूर्ण होती हूँ तुम में
पर तुम हो क्योंकि मैं हूँ ..और मेरे प्राण तुम हो ।
मैं भी हूँ क्योंकि तुम हो ...तुम्हारे प्राण मेरे होने में है ।
...तो क्या हममें भेद है ....
स्वर्ण तो ह्यो परन्तु उसे धारण करने की आकृति ना हो ...आभूषण ना हो अथवा आभूषण तो हो परन्तु स्वर्ण का ना हो ।
ना तुम हो ...ना मैं ही हूँ ...हम है ...एक है । जहाँ है ...हम है । पूर्ण तो ना मैं ही हूँ तुम्हारे बिना ...ना पिय तुम ही पूर्ण हो मेरे बिना ।
परन्तु ना तुम मात्र हो ...ना ही मैं मात्र हूँ ...तत्वतः हम *हम* है युगल है ...
जल और शीतलता जैसे सँग ही पूर्ण है ...
अग्नि और दाहिका जैसे सँग ही फलित है ...
हे प्रियतम मेरी जीवन धरा पर जैसे तुम्हारी निकुंज सजी हो ...रमणार्थ ।
हे प्रिया जैसे मेरे नयनों के नभ को नील-सारी में समेट तुम मुझे उड़ाय ले जा रही हो किसी रसातुर खग की तरह ... पँखो में छिपी किसी हिरणी की तरह ...
सो कभी कभी हिय कह ही देता है कि ये ना तुम हो ... ना मैं ही हूँ ...यह तो *हम* है
....नित्यमिलित ...नित्ययुगल ... नयनों की कोर से नित-नित ...नित्यविहारमय श्रीयुगल । परस्पर साँसों में नित्यप्राणवत ... पूर्ण परस्पर । तो यह पूर्णता जब परस्परता खो देती है और एकत्व हो प्रकट श्रीयुगलमणि में उज्जवलनीलमणि सी एक आभा-प्रभा सँग होती है वह सम्पूर्णता ही ..ना पूरी तुम रहती है ..ना मैं रहती है
...मुझमें तुम और तुममें मैं होकर यह सँग *हम* ही होती है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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