तृषा - तृषित

*तृषा*

तृषा... यह तृषा , भौतिक चाह नहीँ है, भोगों की प्यास भी नहीं ।
... प्रेमास्पद के सुखों की लालसाओं में डूबना होगा ...
यह लालसा , वेदना , उत्कंठा सब तरह से अनवरत् अपने नित्य प्रियतम् हेतु है । यह सभी अवस्थाओं से छुटि स्वयं महावस्था है तृषा ... मिलन तो इस तृषा की एक लहर भर है स्थायी तो यही प्रकट है तृषा...  यह तृषा मिल कर भी पूर्ण नहीँ होगी , यह नित्य तृषा है , इसे कहीँ किसी अप्रकट स्थितियों में और गहराना है , यह अग्नि है जिसका स्रोत और रस कहीँ द्वय ललित कुसुम पल्लव से अभिसरित है , उनके नित्य नवनव श्रृंगार राग में यह और सघन हो जाती । इस तृषा को कुछ नहीं छु सकता बस यह प्रत्येक स्थिति को छु कर उसे ही सरस् कर जाती ।
भोगों की पुकार से छुटि यह तृषा उनके उठने से ही प्रकट हो कर दहकती है परन्तु कभी बुझ नहीं सकती ...जो तृषा कभी बुझ जावें वह तो वासना भर थी , यह तृषा तो समूचे अंतर मण्डल पर स्वयं विराजमान हो नृत्यकला सीखा रही ... जब जब इस तृषा का अनुगमन प्रकट होगा यह आह्लाद भर जायेगी । सभी संचय सम्भव है , सभी निग्रह या त्याग से भी ऊपर यह तृषा है , परम नित्य प्रीति पूर्ण रसावलियों से सजी उन्मादित नित्य-अतृप्त अवस्था ।
कुछ भी पा लेना इस तृषा का बाधक है  , और इसकी नित्यता हेतु सब पाकर भी कुछ ना पाना एक भगवत् विधान ही हो, ना इस तृषा को कुछ अन्य वस्तु छु सकती , और ना अन्य वस्तु को इसका स्पर्श सम्भव ...इस तृषा को कुछ वांछित है तो और तृषा ..केवल तृषा ...सरस् तृषा । सब और से अचाह से यह चाह प्रगट होती है और अचाह में छिपे रहने से यह श्रृंगारित होती रहती है ।

भगवत प्राप्ति मात्र नहीं अपितु
उनकी प्रीत- व्याकुलता-की लालसा होना इस तृषा का ही चरणानुराग है , भगवदीय रस  छू कर तृषित रह पाना । प्रियतम की प्यास , प्रियतम के संग होने पर भी , समक्ष होने पर भी... अर्थात मूल वांछा तो तृषा ही हुई , यह कभी छिपती ही नहीं और कितना ही खोज बहा देने पर यह छिपी ही रहती ...सँगिनी श्रीकिशोरी की अविचल सँगिनी यह ही तृषा । जिन्हें ईश्वर या भगवान चाहिये वह कभी तृप्त हो जाएंगे , जिन्हें केवल उनकी प्रीत की चाह है वह ही तृषा के पथ पर है । जिन्हें प्रियतम-आलिंगन में श्रृंगारित श्रीप्रिया में हुलसती-फूलती और सघन होती तृषा ही दृश्य हो और इस तृषा की सुक्षुप्ति के सम्पूर्ण खेल इसे और जागृत ही कर रहें हो । निज प्रियतम हिय में यह ही प्रेमांकुरण हो बह रही हो , तृषा निहारती प्रियतम में , तृषा रहती प्रियतम में , स्वयं नित्य तृषा सी ...तृषाओं का समुद्र पिला रही हो जैसे स्वयं *तृषा*- । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । तृषित ।

समग्र तृषा में समग्र रस का आस्वादन प्रकट है । उज्ज्वल रस । परन्तु वैसी चटक - चाह - आह का बाह्य समग्र परिमंडल में गहनतम अभाव है । भव मण्डल अमावस्या में प्रसन्न है , जीवत्व भँग होता है षोडशी कला में सम्पूर्ण पूर्णिमा में । अतः ...तृषा हीन जीव ब्रह्मसिद्ध ही हो वह प्रेम की बिन्दु भी नहीं चख सकता । और प्रेमी सब त्याग कर तृषा का आलिंगन रखते है । उज्ज्वल आस्वादन नहीं होता क्योंकि तृषा और तृषित स्वरूप से जीव विपरीत गतिशील है । तृषा जगत में किसी को नहीं चाहिये , जब श्यामसुन्दर ने तृषित पुकारा तो हम भी चौके थे सुना नहीं था यह शब्द । तृषा शब्द और स्वरूप अवश्य उन्होंने प्रकट किया जीवन मे परन्तु तृषित क्या और कौन ? ...वें ही मात्र तृषित है , नित्य वें ही होंगे । और उनका यह नित्य तृषित स्वरूप केवल प्रेमी के समक्ष प्रकट है शेष वह यथा भावना तथा रूप मुदित स्वरूप है । रस जब तृषित हो तब वह ओषधी भी तृषा चाहता है और उपचार की समस्त विधि तृषा पूर्ण रसिली क्रीड़ा होती है । जिस आलिंगन में  तृषा पुष्ट ना हो वह मृत वस्तु का आलिंगन है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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