विरहित कौन -तृषित
*विरहित कौन ???*
नित्य रस श्रृंगार के पथ पर हमारे श्रीप्रियाप्रियतम नित्य एक प्राण , एक वपु , एक मन , एक सौंदय , एक श्रृंगार , एक भाव है । नित्य विहारमय ...प्रगाढ़ परस्पर मिलन की इस अविराम प्रेम-श्रृंगार वृत्तियों में मिले रहने पर भी उनके हृदय में अपने प्रेमास्पद को सुख न देने का सँकोच होने से ना मिले सी सम्भावना उदय होती है । नित्य प्रगाढ़ मिलन सुधा में तृषाओं की लहरों से स्वर निकलता है अर्थात मिले हुए इतने व्याकुलित होते है जैसे कभी न मिले हो । बस इस व्याकुलता को क्षणिक कम करने की चेष्टाएँ हमारी सेवा है । श्यामाश्याम की अनन्त सेवाओं से भी इनकी तृषा को हम न्यून नहीं कर सकते । आपितु यह प्रेमास्पद के सुख की तृषा विकसित होती जाती है । यह तृषा ही हमारे विहार में क्षणिक विरह है ...जो है नहीं परन्तु इसी भावात्मक रोग का उपचार असम्भव है , यह युगल की तृषा होकर उनका आस्वादन ही होगया है ।
अब बात करते है नित्य रस से बाहर प्रेम के विशेष दूसरे दल विरह की । सभी जानते है विरह में प्रेम पुष्टि होती है , विरह में प्रेम का श्रंगार होता है । विरह में अनन्त रस सुख सघन होते है । परन्तु विरह इतना आस्वदनीय है तो वह परम विकसित सुख रूपी प्रगाढ़ विरह है किसे ???
जो विरह अति सघन , दिव्य , और प्रेम को विकसित करें , वह है किसे ...या उसके मूल में अनुभव किसका है ?
प्रगाढ़ विरहित होने का लोभ भावुक को अनुभव नहीं होने देता है कि वस्तुतः प्रेम में विरह जब तक मेरा माना जावें ...माना जावें कि मैं विरहित हूँ तब तक वह प्रेमोमय अद्भुत श्रृंगार होता कहाँ है ???
वहीं निज प्रेमास्पद में विरह का क्षणिक अनुभव ही विरह के रस सुधा में भिगो देता है ।
जीव को निज विरह खलता है , उसे श्रीप्रियतम प्रभु से अधिक उत्कर्ष या प्रेमरस मय अपनी भावना लगती है , वह यहीं सोचता है कि मैं विरहित हूँ , जबकि चार दिन पहले ही उसे पता चला कि वह वस्तु है किसकी । जिसकी वह वस्तु है वह दीर्घ काल से नित्य खोजी है , और अब भी वह वस्तु उन्हें मिल जावे यह सम्भावना कम है क्योंकि वस्तु तो निज रस चिंता में है । जीव तो प्रियतम के विलास की , वस्तु है । परन्तु जीव का यह अनुभव कि मुझे विरह है , वास्तविक सहज निर्मल प्रेमवर्धक विरह का परम बाधक है । विरह ....
विरह ...विरह और मुझे । ना सखी न । कबहूं ना । मौहे विरह कैसे होवें सखी , विरह तो प्रेमी को होवें है , और प्रेमीन के प्रेमी तो प्रियतम है । प्रेम तो अनन्य रस है री और मौहे तो क्षणिक ही अनुभव न होवें । विगत क्षण मौहे का दशा ...का गति भई मैं ना जानूँ । जबहिं निज रूप कछु स्मृत ही न रह्वे तोऊँ जब वें प्रियतम मोरी स्मृति में छू जावें , वांकी वेणु पुकार मौहे आह्लादित कर जावे । तब जे स्मृति तो वांकी पुकार से कबहूं आवें , फिर मोरे हिय की गति जे स्मृति को ही न सहज सके । स्मृति को बिन्दु बिन्दु तो पिय के प्राणन ते रिसे है । कितने काल से वें प्रतिक्षा किये , कौन जान सकें है री । मौहे कबहूं कोऊँ स्मृति रह्वे , सबहिं जगह मैं फिरती रहूँ , पिय हिय कब सो प्यासो है कह ना सकूँ री । मैं तो वांकी पीड़ा वस्तु हूँ , मौहे कबहूं प्रेम होवें तो सदा प्रथम दर्शन आतुर स्थिति न होती ...स्थिरता को बृहद अभाव है री । और प्रियतम के मन के प्रेम की मैं अनुभव न कर सकूँ , मैं तो वस्तु भर हूँ , मौहे प्राण के हिय में मोरे प्रेम अभाव से जो अपार ताप रह्वे वो भी मौहे तो बिन्दु रूप भी न स्मृत रह्वे है री । तू कह्वे न कि ..तेरो मन कबहूं कौन दिशा में तो कबहूं कौन दिशा में ...साँची कह्वे , जबहिं मोमे थिरता न भई तो कौन रीत- कौन प्रीत । सखी जे प्रियतम मोसे जितनो प्रेम करे मैं जे प्रेमसुधा को बिन्दु भी शीतल न कर सकूँ । प्रेम होवें तो प्रेमास्पद को अभाव होवें न , जे अभाव ही विरह है न सखी । तो जे अभाव तो जबहिं होवें जब मोरे हिय में नित्य प्रेम स्थिर रह्वे । सखी जे अभाव को जो अति सघन सुधा रूप ताप को समुद्र है जे मोरे प्राण प्रियतम के हिय से झरे , परन्तु सघन ताप से प्रियतम को कोऊँ रत्न मणि मैं न होई सकूँ , मौहे तो रज सेवा भी अभीष्ट होवें तो जे मै भी प्रियतम को प्रेम है । साँची सखी , प्रेम बिन्दु मोमे ना है और प्रेम सिन्धु में मोरे पिय भरे है , परन्तु मोरी छद्म मति से जे प्रेम सिन्धु अपार पीड़ा को अनुभव करें । जे अपार पीड़ा कबहूं मैं सम्पूर्ण रूप पी जाऊँ । जे प्रियतम प्रेम को ताप अपने पे लेंवे तो तू मौहे छुं कर देख सखी , मैं तो नित शीतल रहूँ । आप तपे सखी , मौहे नित शीतल रखे है ...तो कौन में प्रेम है री । जे प्रियतम की निज शीतलता को प्रियतम को जो प्रगाढ़ अग्नि शाखाओं से भरी विशाल जिह्वाएँ रोम रोम से झरती । ये ताप शीतल करवे की कोऊँ विधि होती तो समुचो ताप मैं पी जाती सखी । भुज पाश में पकड़ जे तमाल लता को ताप शीतल कर पाती , परन्तु सखी ज्योँ ही निकट पहुँचु मोरे हिय में जो शीतल भोग कृपा से सजे वें प्रियतम की व्याकुलता की बिन्दु को ही शीतल न कर सकें है री । मैं कबहूं न समझ सकूँ जेई मोसे कितनो प्रेम रखे है , इतनो कैसे सहजे है । और मौहे काहे बिन्दु भर अनुभव न रह्वे प्रियतम के हिय की पीड़ा । मौहे विरह न है , मोरे द्वारा मोरे प्रियतम को विरह है री ।
इस भांति निज प्रेमास्पद का विरह अनुभव , और उस विरह का निदान करने से प्रेम का विरह सघन होता है । यहाँ प्रियतम को सन्तप्त मान उन्हें प्रेमरस केलि सुधाओँ का अनन्त रस रँग पिलाया जाता है । सन्तप्त होने के क्षणिक अनुभव में आलिंगन आदि से तृप्ति की ऐसी श्रृंगार लीलाएँ होती है जिनमे प्रेमास्पद का ताप न्यून अनुभव नहीं होता । विरह प्रेमास्पद का अनुभव होने पर ही प्रेमास्पद का अद्भुत- अनिवर्चनीय महोत्सव हो जाता है परन्तु उत्सवों पर उत्सव और श्रृंगार रस की सघन वर्षाओं में वह सघन ही प्रतीत होता है क्योंकि सहज प्रीति-स्वरूपा को कदापि प्रीति का अणु स्वयं में भासित नहीं होता है ।
अतः जीव जिस विरह का अनुभव भी पीना चाहे वह स्वयं के चिन्तन से ना छूटने पर कभी सोचता ही नहीं , कि जो विरह मुझ बिन्दु में ऐसा दाह है तो रससिन्धु में कैसे होगा ...सहज रसभाव श्रृंगार की सुधा श्रीप्रिया को निज क्षणिक सर्व अनुभव निज प्रियतम के प्रेम की छाया से छलके ही अनुभवित होते है , निज स्वयं की स्मृति भी पृथक सत्ता से वहाँ नहीं रहती ।
अतः प्रेम जिस विरह की महत्ता कहता है वह निज प्रेमास्पद का विरह है , और जिसे तोष-आमोद-मोद-प्रमोद-आनन्द देने की सर्व वृत्तियों में वह पुष्ट होता ही भासित होता है । यहाँ सम्पूर्ण सेवाओं में प्रियतम की स्थिति ही दृश्य होती है , निज सेवा की तनिक भर महिमा अनुभव नहीं होती । अपितु प्रियतम हिय में सम्पूर्ण सेवाओ का सम्पूर्ण सुख भी उन्हें अतृप्त सा ही पाता है । प्रेम को आप भी समझते हो परन्तु संसार भर में , दिन भर खाता-पिता निजशिशु प्रत्येक माँ को भूखा ही दिखता है ...वहाँ वह तृप्ति अनुभव नहीं करती । प्रेम में निज अर्थात प्रेमास्पद (जिनके हेतु प्रेम प्रकट है) ही है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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