स्वभाविक दास , तृषित
*स्वभाविक दास*
जीव कौन है ??? सिद्धतः नित्य दास ...हरिदास । सुना बहुत है यह , समझा भी होगा परन्तु जीव हरिदास है यह बड़ी गहन उपलब्धि है और ऐसी स्वभाविक गति है जिसे जीव अनुभव कर लें तो इससे उत्तम प्राप्ति-स्थिति आदि रहती ही नहीं ।
जीव को सम्पूर्ण जीवन आश्रय चाहिए , जिसे वह समाज कहता है । समस्त राग-विराग से छूट स्वभाविक आश्रय श्रीहरि का वह अनुभव कर पाता है ।
जगत में कोई जीव विषयों के प्रभाव से ईश्वरत्व को सिद्ध करें , कोई सत्ता प्राप्त करें तब भी उसे सुख उन्हीं क्षण में होगा जब उसके भीतर का दास्य प्रकट होगा । जीव स्वभाविक ईश्वर नहीं है , अतः सर्वता-शक्तियों के संग्रह की वह चेष्टाएँ व्यर्थ ही होती है । अपने स्वामी के अनुग्रह के बिना जीव अपनी भौतिक इच्छाओं को भी कैसे सिद्ध कर सकता है , जीव स्वस्थ रहते और भौतिकता में रहकर अनुभव नहीं करता उस नियंत्रण का परन्तु किसी फुटबॉल खिलाड़ी के पैर में लकवा हो जाये तब वह अनुभव करता है कि खेल मैं रहा था परन्तु शक्ति तो परम ने ही दी हुई थी ।
जीव दास है , और यह उपलब्धि है क्योंकि वह हरिदास है ।
दास अर्थात सेवक , वह जिसे सेवा प्राप्त हो । जगत में जीव कथित भोगवादियों की सेवा के लिये जीवन व्यर्थ कर देता है परन्तु यह दिव्य श्रीहरि सेवा उसे सहज प्राप्त है वह नित्य हरिदास है । परन्तु सेवा होती है स्वामी के अनुकूल ...उनकी इच्छा , भावना , प्रकृति , स्वभाव के अनुकूल । श्रीहरि का सम्पूर्ण ऐश्वर्य को न्यून करता स्वरूप है श्रीश्यामसुन्दर । जब तक जीव में ऐश्वर्य का लोभ है वह कोई सिद्धि आदि प्राप्त करना चाहता है तब तक वह समझ नहीं सकता श्रीमद्भागवत का यह कथन कि कैसे श्रीकृष्ण स्वयं सम्पूर्ण भगवान है । क्योंकि इनमें सम्पूर्ण एश्वर्ये सँग सम्पूर्ण मधुरत्व प्रकट है । राजा भले चक्रवती हो प्रेममय-करुण ना हो तो सम्बन्ध हृदयात्मक नहीं हो पाता । यहाँ शयमसुन्दर का मधुरत्व स्वयं और सर्व सामान्य के ऐश्वर्य लालसा एक क्षण के सँग या स्मरण में भुला देता है । रहता है तो केवल प्रेमवपु उनका ...तो जीव ऐसे प्रेममय श्रीहरि का दास है , परन्तु दास सेवा करता है स्वामी के स्वभाव अनुरूप । यहाँ ही जीव भूल करता है उसकी सेवा अपनी अविद्या से होती है ना कि स्वामी के सुख अनुरूप । हां , सिद्ध रसिकों का आश्रय प्राप्त होने पर जीव समझ पाता है अपने स्वामी का स्वभाव । कैसा है श्रीकृष्ण का स्वभाव ...??? अपरिमित विस्तार रस समुद्र इनका स्वभाव - इनकी प्रकृति एक शब्द में समेट इनके रोम-रोम को सुख दे सकती है ...श्रीकृष्ण की प्रकृति है श्रीराधा । श्रीकिशोरी ही उनका निज स्वभाव है । निज आह्लाद के वशीभूत उनके भीतर एक ही लालसा है इस आह्लाद से अभिन्न हो स्वभाविक प्रेमानन्द की लहरों से सर्वता की सेवा । स्वभाविक कोमल हृदय में इनका यह स्वभाव ही स्फुरित है ...जहाँ स्वयं यह अपनी प्रकृति को नित्य नवश्रृंगार-अलंकारों में नवेली हुआ पाते है । ऐसे स्वामी जिनकी प्रकृति अनन्त उल्लासो-भावों का सार-समुच्च है , उनकी सेवा जीव को प्राप्त है । और सेवा का मर्म कहता है कि प्रकृति अनुकूल श्रीस्वामी की सेवा होवें । जैसे किसी व्यक्ति की दैहिक प्रकृति उष्ण हो उसे कोई उष्ण पदार्थो का भोग लगावें तो वह सेवा कष्ट दायी होगी । अतः स्वामी की प्रकृति (स्वरूप-स्वभाव) को स्मरण रख श्रीस्वामी की सेवा हो । यहाँ श्रीहरि की मूल ह्र्दयस्थ जो मूलप्रकृति रुपा श्रीकिशोरी जू है वह प्रकट स्वभाव है श्यामसुंदर की सर्वसेवा का । वह प्रकट सुख है श्रीप्रियतम का... ऐसा परमोज्ज्ज्वल सुख जिसे वह नयनों से निहार भी नहीं पाते । श्रीहरि की स्वभाव वपु श्रीकिशोरी कृपा से अनुभूत होता है कि श्रीहरि का स्वभाव है रस-आनन्द-प्रेम के उत्सवों की वर्षा का । ऐसी रसवर्षा जिसके प्रगाढ़ मधुत्व- कोमलत्व स्पर्श से और ...और की लालसा ही स्फुरित होती है । श्रीहरि का रस समुद्र उनके हृदय से प्रकट होकर उन्हें जो अनन्त रसमाधुरियों का पान करा रहा है उस माधुर्य पान में वह स्वयं को अति संकुचित पाते है । यह नवघन जानते ही नहीं कि एक सागर भरा है इनमें और वह जब बरसता है तो सर्व दिशाओं में शीतलता - रसमयता - सुगन्ध भरी प्राणदायिनी वर्षा झरती है । यह रसवर्षा ही इस नवघन की अतृप्त तृप्ति है । तो आनन्द की रसभरी वर्षाएँ यह इनका स्वभाव है , ऐसी मधुरामृत की सघन प्रेम भरी वर्षा जिससे बाहर यह स्वयं ही नहीं निकल सकते । जीव रसीले रसिकशेखर प्रियतम प्राण प्रभु को उनके निजानन्द में हो रहे उनके रस-पोषण के अनन्त उत्सवों में स्वयं को नवीन सेवावृत्तियों सँग रस-आनन्द की वर्षा कर सुख दे सकता है । श्रीहियस्वामिनी जू की प्रत्येक सेवा प्रियतम के निज-स्वभाव की सेवा है ...ऐसी प्रकृति जिसका जितना स्पर्श वह स्वयं करते है वह और सहज नव्या हो उठती है । अपितु नख-शिख ही नहीं सम्पूर्ण कुँज ही नवीन हो उठती है जिससे प्रियतम के हृदय में आनन्द-रस की अनन्त वर्षा भरती जाती है । श्रीहरि को उनकी प्राण सर्वेश्वरी की सेवा से निजहिय में निजसेवा ही सुलभ होती है । एक एक श्रृंगार सेवा यहाँ ऐसी होती है जिसके सुख को वह स्वयं व्यक्त नहीं कर सकते है ।
श्रीकृष्ण के श्रृंगार सेवा - सौंदर्य आदि में जिनका प्रवेश नहीं वह दृश्य-अदृश्य में आनन्द-रस वर्षा रूपी सेवा करें ...निज-जीवन को नित्योत्सव रखें । आनन्द की अनन्त रस वर्षा ही श्री हरि का स्वभाव है । जैसा स्वभाव , वैसी सेवा । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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