नीरस हिय , तृषित

*नीरस हिय*

दिवारात्रि भगवत्कृपा की सुधा बरस रही है , परन्तु जीव आक के पौधे की तरह इस दिवारात्रि बहती धाराओं में सूखता जा रहा है । विचित्र स्थिति है अविद्या की , विचित्र स्थिति है विषयों के सँग की और विचित्र कोई ऐसा सुख जीव पाता है भोगों में ।
रसिक गुरुजन कहते है कि किसी के भूत-प्रेत की बाधा लगी हो उसका निराकरण सम्भव है , वह विपत्ति से जीव छूट जावें । परन्तु भोग-विषयों के प्रभाव से जीव की दुर्गति देखिये कि बारम्बार उपदेश-कथा-सत्संग सुनने पर भी अंतर को कोई स्थिति गति मति प्राप्त न हुई । कितना ही सन्त जन कह्वे , जीव पुनः पूछेगा और कह्वे में अपनी ओर से सम्पूर्ण सुधामृत धारा ही भलें बरसा दी जावें ...जीव से पूछा जावें कि समझ बना कुछ तो वहीं स्थिति और वही दशा जो कहने से पूर्व थी । अपितु मूढ़ जीव को यह भी लगता है कि वह यहाँ वहाँ जितने प्रश्न कर रहा यह ही परमस्थिति है ...वह ही सिद्ध है ! हमारे देश में पति से विवाह से पूर्व किसी स्त्री ने उसकी कक्षाएँ नहीं ली , ना ही अब तक देश मे माँ होने से पूर्व शिशु को लाड़-प्यार करना कहीं किसी ने सीखा । यहाँ भगवतपथ पर इतनी जिज्ञासाओं का कारण अपनत्व का अभाव है । अपनत्व तो प्रेमास्पद के सुखों से भरा है । संसार मे तो माँ शिशु की रोने की विविधताओं को समझ उसके मन की कर सकती है परन्तु भगवत पथ पर अपनत्व का अभाव सत्संग - रसचर्चा आदि में जीव को निद्राकाल लगता है । कितनी ही रामायण सुनी हो परन्तु स्वयं श्रीराम के प्रति कोई हृदय में चित्र नहीं प्रकट होता उनका , प्रश्न बना रहता है ...कौन है श्रीराम ??? ...अब तो यह उत्तर भी व्यापार हो गए है ... विषयी ही धर्म शास्त्र के उपदेश कर रहें क्योंकि प्रश्नकर्ता पीड़ित नहीं ...ग्राहक अनुभव हो रहा है । जबकि वास्तविक वैद्य ही उपचार कर सकता है , परन्तु आध्यत्मिक कौतूहल या जिज्ञासा उतनी पीड़ा से उठी ही नहीं तो समुचित उपचार की जगह किसी भी प्रकार की खटमीठी गोली मिल जावे ,बस ।
जीव की इस दुविधा को पाखण्ड तो दोहने में लगा है परन्तु निर्मल रसिकों का करुण हृदय कितना पीड़ित होता होगा ...
*सौ भूतनि की बिपति सहि इक सठ सह्यौ न जाइ*
*कह्यो सुन्यौ समुझै नहीं फिरि पूछै हियौ पिराइ*

इतनी नीरसता , क्योंकि जीव के जीवन मे रस है ही नहीं सूखी शुष्क धरती है । उपजाऊ धरती पर ही बीज को बोने से फल मिलता है , आज भोगों में फंसे हम सभी के हृदय सूखे है , नीरस है ...प्रेम का तृण ही नहीं उगता वहाँ । देखिये यह समाज जिसे दिवा रात्रि हम गूँथने में लगे यहाँ कितना सहयोग है और कितनी अपरिचय स्थिति , बस-ट्रेन में हम परस्पर कैसे होते है जैसे पत्थर भरे हो , हम कहीं दब गए हो ...प्रेम तो है ही नहीं वहीं घृणा से भरा हृदय रसभाव को गृहण कर ही नहीं सकता । जीव के अपने हृदय में जितना सूखापन है (स्वार्थ- भोगों के प्रताप से) वहीं वह देखता है और अनुभव रखता है । सूखी धरती पर बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है , ऐसी ही रसिक हृदय जो प्राणरस बरसावै नीरस जन पर ,वह व्यर्थ ही है । जीव उस रस का आस्वादन अनुभव ही नहीं करता क्योंकि अहंकार के प्रभाव से अन्तःकरण में मैं-मेरा यहीं भीतर भरा जा सकता है ।
हाथी को स्नान कराना भी व्यर्थ है , वह कितना ही रगड़ रगड़ कर नहलाया जावें बाहर निकलते ही सूंड से विषय रूपी धूल अपने ऊपर डाल लेता है । अतः जीव के लिये आज सत्संग-कथाओं का स्नान सरल हुआ है , भीतर संकीर्णता-शुष्कता उतनी ही प्रबल होती जा रही है । सन्त-गुरु सँग केवल उनसे प्रश्नोत्तरी खेलने को होता है , ना कि किसी सेवा हेतु और ना ही उनकी भावदेह की सेवा लालसा का विकास उठता है। जीव के भीतर का स्वार्थ जब तक ना जावेगा वह स्वयं को गुरु का गुरु ही समझेगा अपने विचित्र नीरस प्रश्नों को कर के हर्षित होगा । जबकि प्रकट श्रीहरि है वह सन्त , उनकी सेवा लालसा से हृदय भरा होवें । परन्तु सेवा तो प्रेम का फल-प्रसाद है । अभी तो जीव लोभ-मोह के खेल में रचा बसा है ।
*ऊसर भुईं नीरस हियौ , क्यौं उपजै त्रिन ग्यान*
*सीखौ बयौ सबै गयौ, ज्यौं गज कौ  असनान*
तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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