सेवा से प्रीत , तृषित
जो स्वयं को नित्यबिहार रस के भोग स्तर का नहीं समझे वें ही भावसेवा सहजता से दे सकते है ।
शेष जो स्वयं को योग्य पावें , वें सर्वदा अपने सुख - भोग और अपनी खोज में लगें होते है ।
जैसे लोक राष्टपति भवन वैसे राष्ट्रपति जी का है , परन्तु वहाँ की सुविधाओं के लोभ में वह सर्व हेतु आकर्षणीय है ।
जो सच्चा सेवक हो वह ही सही ईमानदारी से सेवा कर सकता है और सेवक जानता है कि यह वस्तु किसकी है , उसकी प्रीति तो स्वामी के सुख में ही होती है । अतः कभी अनायास सहज नित्यबिहार रस की कृपा बरसे तो सजग हो जाइये सेवा हेतु । क्योंकि सेवा नित्य सजगता रूपी आभूषण सदा धारण रखती है । इस सजगता में सम्पूर्ण नयन स्वामी के सुख पर अटके होते है । तृषित ।
सेवक को उनके पद की वांछा भी नहीं होती । उसका अभीष्ट सदा सेवा होती है , यह प्राण युगल की सेवा ही स्वरूप स्वभाव और उसका सुख रहती है । और सेवा उन्हीं का अभीष्ट है जो दिव्य श्रृंगार रस को अनुभव कर सँकोचित हो जाएं। तब वहां का रस अनुभव केवल सेवामयी सजगता हेतु अनिवार्य उपस्थिति हो जाता है ।
जिस भांति लौकिक सुख के लिये लोक में कामना है वैसी कामना भाव पथिकों में भी है जबकि हमें भोग कामना नहीं करके सेवा लालसाओं में भीगना है । उदाहरण हेतु मानिये लोक में कोई अत्याधुनिक वाहन के भोग के लिये व्याकुलित न होकर उसके रखरखाव का चाकर रहने का स्वप्न देखता हो ...महल की पटरानी नही , सेवादारी का स्वप्न है यहाँ ... ऐसे ही पिपासु निर्विकल्प चित्त से सेवामय रह सकते है क्योंकि इस रसभोग पर उनका अधिकार नहीं यह उन्हें पूर्व में ही स्मृत है और वें इसे भूल नहीं सकते । शेष जो अधिकारी होना चाहते है वह तद स्थितियों में सेवामयी सजगता नहीं रख पाते । जिन्हें भी अपने अधिकार की चिंता नहीं होकर स्वामी का सुख अभिष्ट अनुभव रहे वह ही सेवक है । प्रीति विहीन ही कहता है कि क्या यह रस मेरा अधिकार है ...प्रीति विहीन को तो चाकरी में होना है और चाकरी (अनुसरण) तो स्वभाविक अधिकार है ।
सेविका को श्रीकिशोरी जू का आभूषण मिलें और वह उन्हें ही वह धरा देंवें । शेष सेवा वृति ना हो तो जीव प्राप्त वस्तु पर अपना अधिकार समझता है । प्रसाद वत प्राप्त रस पर भी श्रीजी कृपा से वह उनके हेतु ही प्राप्त है यह भावना होती है । स्वयं को अधिकारी जीव समझने वाला तो दिव्यता और दिव्य श्रृंगार को निज वस्तु समझता है जैसे अपनी सिद्धि द्वारा जुटाया अपने लिये विलास ।
दिवारात्रि सेवामयी किंकरी श्रीप्रिया-प्रियतम के लिए श्रृंगार सजाती है । परन्तु क्षणिक भोगमय दर्शक वहाँ उस श्रृंगार को लेकर छिपा लेते है , जबकि मनमोहन श्रृंगार को नित्य निवेदन करने वाली सहज सेवावृत्ति अपनी सेवावृत्ति में राजी है । सम्पूर्ण भावरस श्रृंगार स्वयं कर भी उस श्रृंगार प्रसादी पर भी वह अधिकार नहीं चाहती । (सेवक ने प्रसाद चाहने हेतु भी सेवा नहीं चाही है , सेवामयता में होना ही प्रसाद है ) क्या भोग-भंडार के सेवक स्वयं ही प्रसाद आरोगते है कि श्री हरि के ही अनन्त उदर (भोग लालसा) को वह सेवा दे रहें होते है सन्त-पंगतों में ।
सेवासुख से तादात्म्य
*वस्तु पर मेरापन ना हो तभी उस वस्तु की सेवा सम्भव है ।*
मेरापन तो मात्र सर्व वस्तुओं के अधिष्ठात्र श्रीप्रियाप्रियतम के सुख से हो ।
वह मेरे है यह भाव सर्व सामान्य रूप से आप जान चुके है , परन्तु इसमें उनकी सर्व वस्तुओं - स्थितियों - अनुभूतियों में भी मेरापन होगा और सहज सेवा में बाधा होगी अर्थात् किशोरी जू मेरी है परंतु निकुँज-महल सेवार्थ ही मेरा है ।
अतः मानिये उनका सुख मेरा है , उनका *सुख* ही मेरे जीवन का हेतु है । उनके सुख में मेरा पोषण है । तब सारा ध्यान उनके सुख पर होगा । अब उनके सुख के लिए कितनी ही विकट स्थिति बन जायें परन्तु वह प्रिय होगी क्योंकि उन्हें सुख । और उनके सुख के लिये बाहर कितनी ही सुखद स्थिति रह्वे , वह पीड़ा देगी अगर उससे उनके सुख में हानि प्रतीत हो ...आभासित हो । श्रीप्रियाप्रियतम का सुख नित्य वर्द्धन मय है , उसमें न्यूनता होती नहीं । बस प्रीति वश न्यूनता का अनुभव होता है निज भाव के विकास के लिए । जैसे एक माँ को स्वस्थ शिशु भी दुबला प्रतीत होता है । इसे निज सेवा अभाव कहते है । निज अभाव की स्मृति भावसेवा में सदा स्फूर्ति भर देती है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । और और और सजाना होगा श्री झांकियों को सखी ...अभी रस पुष्टि कहाँ हुई है उन्हें ... (सेवा लालसा)
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