तृषित पद खण्ड

नवनीत-प्रीत-रीत भरी लागे है , ज्यों मूरत नवनीत खरी ।
रसवर्षिणी अनुराग झरी , स्वाद ज्यों छलके अधर सो ढ़री ।
फूल ऐसो जे छुवत पिघले , रस ऐसो जे न छुवत मधु टपके ।
रहत ज्यों पिय नयनकोर माई , जे ही विधि पिय हित नवनीत सो बरसे ।
नवनीत-प्रीत-रीत भरी लागे है , ज्यों तृषित नैनन मूरत नवनीत खरी ।

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नैन छड़ी ते घायल रह्वे और छड़ी को का काज
प्यारी पग निहारे ते रस रह्वे औरहि चाह को बजावै झाँझ
सँग हिय कुँज माँहिं कुसुमित फुले , आपहि पकावे हित को साज
दृग तृषित प्रीत भरे रह्वे सँग हूं न खुले नयन कपाट ।

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