विश्राम - तृषित

*विश्राम*

श्रीकिशोरी जू सम्पूर्ण प्रेम-रस सौंदर्य का विश्राम है ...
विश्राम , जीव विश्राम को जल्दी अनुभव नहीं करना चाहता ।
पथिक पथ पर चलते हुए रोने में सुखी है । वहीं उस पथ पर वह सो नहीं सकता , भले कितना ही संकट हो । हममें बहुत से अपने आवास के बाहर सो नहीं पाते । निद्रा से पूर्व स्थिति है सहजता , असहज मन होने पर विश्राम प्रकट नहीं हो सकता है ।
विचित्रता देखिये हम सभी दिवारात्रि बड़ा ही विषादमय मायाजाल देख रहें है , उसके प्रति त्रस्त भी है , बड़ी पीड़ा है परस्पर । परन्तु उपचार की अपेक्षा हम इस जंजाल में सघन से सघन धँसने को आतुर है । मन - प्राणों को विक्षिप्त कर हम पहुँचते श्रीहरि के द्वार पर । वहाँ से एक प्रमाण पत्र लेते है ...स्वयं के हेतु कि हम भक्त है । और पुनः वहीँ दशा । कोई परिवर्तन नहीं ।
श्रीकिशोरी परमोच्च रसप्रेम श्रृंगार सेवा का महाविश्राम सरोवर है । इनके श्रीचरण में आने पर श्रीहरि कहीं गति नहीं चाहते ...कहीं ओर मति नहीं चाहते ।
श्रीकिशोरी की प्रथम कृपा तो प्रकट होती है , श्रीप्रियतम की करुणा से , उनकी कृपा से । उनकी निज कृपा पूर्व श्रीकिशोरी का निकटम सँग भी फलीभूत नहीं हो सकता । क्योंकि यह निज-हियमणि माधुर्यसुधा श्रीप्रियतम उसी लोलुप्त प्रेमी को देते है जो यथार्थ में प्रेमी है । प्रेमी है कौन इसकी कसौटी केवल श्रीप्रियतम को अनुभव है क्योंकि श्रीनिकुंज रस से शेष भी वह नित्य उसी सौंदर्य सेवा-श्रृंगार महिमाओं में भरे होते है । जीव जब श्रीहरि से सम्बन्ध बनाता है वह नहीं जानता यह तो कुँजबिहारी है । वह उन्हें ऐश्वर्य की पूर्णता होने से ही आधार मानता है । जबकि वह प्रेम के वह छोर है जो माधुर्य साम्राज्य के भीतर लें जा सकते है । सखी-सहचरी का जीवन मे प्रवेश तो निकुंज लालसा होने पर ही होता है , क्योंकि सहचरियों का स्वभाव - स्वरूप श्रीकुंजेश्वरी की सेवार्थ है । निकुंज लालसा से पूर्व जीव स्वयं का ही सहचर होवें तो कृपा है ।
श्रीप्रियतम महत कृपा करते है जो उनका निज शरणागत है । जिसमें अपार सेवा का लोभ है , और कोई अन्य इच्छा शेष नहीं । वह श्रीप्रियतम की कृपा से कभी उऋण नहीं होना चाह्वे नित्य दास रह्वे । तब श्रीप्रियतम निज चर्चा करते करते अपने हिय का रस सरोवर उड़ेल देते है और दर्शन कराते है निजविश्राम सुधा सर्वेश्वरी-प्राणेश्वरी-रासेश्वरी-करुणेश्वरी का करुण प्रेम साम्राज्य । इस निज आह्लाद को स्पर्श करा कर वह जीव को निहारते है । ऐसा आह्लाद स्पर्श होने पर जीव शेष सभी स्थितियों-प्राप्तियों को लघु पाता है और दिवारात्रि एक पुकार - एक भावना में भर जाता है । क्योंकि श्यामसुंदर ने इस पथ हेतु चुना है तो समग्र लालसा भी वही भरते है । श्रीकिशोरी उनकी निज स्वामिनी है उनकी अनन्त सेवाओं की लालसा में वह अपने निजतम शरणागत को ही लें जाना चाहते है , जिसके भीतर प्रेम रस सुधा का उन्माद सदा लहराता रहता हो ।
श्री प्रियतम साधक का कभी सँग नहीं छोड़ते क्योंकि वह किशोरी सेवा धारण कराने पर इस केंकर्या के भाव से सहज सेवा रस लेते है क्योंकि यह केंकर्य प्रथम उनकी ही वस्तु हुआ है शरणागति से । यह अलग बात है कि निजप्रिया की अद्भुत मधुरता उद्घाटित होने पर और नित्य सहचरियों का सँग प्राप्त होने पर यह भूतपूर्व शरणागत अपने प्राणाधार को भी श्रीकिशोरी सेवासुख में बाधा नहीं डालने देती , अथवा सेवागत वह बाधा श्रीयुगल माधुरी है ऐसा विचार कर परिहास कर जाती है । कहाँ चकोर भई नीलमणि श्रीप्रियतम की रूपसुधा की वह स्थिति फिर कहाँ दुर्लभतम श्रीकिशोरी केंकर्य । केंकर्य लालसा तो बहुतों में प्रकट हो जाती है यहाँ से निज सहचरियाँ उन्हीं लालसाओं को भीतर रसरंग  में सँग ले जाती जिनमें केवल श्री युगल सुख और उनकी प्रेम रसविलास की नित्य वर्द्धमान लालसा  बह रही हो , जिसका हृदय पुकार रहा हो ...नित्य सरस् मधुरतमश्रृंगार में परस्पर निहारन में भीगे रहिये मेरे प्राणाधार श्रीप्रियाप्रियतम । अपने नयनों की इन केलियों मे प्रवेश करिये श्रीप्राणयुगल । लालसा विशुद युगल रस सुख की है तो ऐसी सेवा वृतियों का स्वरूप-स्वभाव उनका वरण कर लेता है । वह जीव लालसा रूप अपने स्वभाव से अभिन्न हो जाता है जैसे सूर्यास्त पर समस्त किरण सूर्य से अभिन्न हो विश्रामयात्रा में सेवायत होती है ।
प्रेम जीवन की सन्ध्या है , विश्राम लालसा से भरा जिसमें फिर पुनः दिवस का ताप होता ही नहीं , बाह्य जीवन मे भले कितना काल बीते । प्रेमी का हिय सघन गुफा में छिपा सा होता है । जैसे जैसे उसे बाह्य जीवन मे एकांतिक स्थिति या सरस् निशा सँग प्राप्त होता है , बाह्य जीवन शीतल मधुर रात्रि से भर जाता है तब वह उतना ही निकट स्वयं को पाता है यात्रा विश्राम के । यहाँ आये भाव पिपासु जीव का विश्राम है श्रीप्रियाप्रियतम नित्य बिहरण । और बिहरण की अनन्त सेवाएं , और उन सेवाओं की लालसा । ऐसी दिव्य निद्रा यहाँ प्रकट होती है स्वयं को श्रीयुगल रंगमहल के कपाटों से सटाये कि जैसे एक एक युग को पल बना वह भीतर बिंझण करना चाहती हो । महानिशा को थामना चाहती हो , कल्पों तक नित्यबिहारी श्रीयुगल की पलकें अटकी होती है परस्पर और यहाँ एक एक स्पंदन को उनसे चुरा कर कालशून्य प्रेम विलास रचती है वह नित्य सहचर अनन्त लालसाएं यहीं उनका मूल विश्राम सुख होता है । यहाँ सा श्रीयुगल रमण सा परमानन्द स्वयं सच्चिदानन्द को ही अन्य कहीं पूर्ण रूप न मिल सका तब जीव की बिन्दु अन्यत्र कैसे विश्राम पा सकता है । श्रीहरि ही निजमहल की सेवाश्रृंगार यात्राओं में लें जा सकते है अपनी माधुर्य सुधा में भीगते हुए । अन्य कोई वहाँ जाता नहीं , सहचरियां तो वहाँ से आती नहीं, जो सखी स्वरूप में प्रकट हो गए है , उनकी मूल भावदेह वहीँ होने से वह मूल में वहीं ही है यहाँ तो छाया भर है । श्रीप्रियतम वहाँ नित्य होकर भी , प्रपञ्च को वहाँ की मधुर बयार देते रहे है । क्योंकि तत्वतः जीव उनका बाहरी प्रकाश बिन्दु है , निज प्रति प्रकाश बिन्दु को श्रीप्रिया रस माधुर्य में भिगोने से उन्हें ही परमानन्द हो सकता है , जीव के भीतर के दास्य स्वरूप को प्रकट होने पर वह भीतर उस दास्यता का यथार्थ रस लेते है । अतः अद्वेत तत्व ज्ञान से जीव की यह द्वेताद्वेत भावना उनकी मूल प्रकृति के सुख विलास में सेवार्थ निज-इच्छा का हेतु हो जाती है । दो न होने पर भी इस द्वेत को तत्वतः वह भीतर लें जाने में समर्थ है । केंकर्य रूप परिचर्या भावना से । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय