बाधा -- तृषित
*बाधा*
मूल बाधा तो स्वार्थ है , स्वार्थ हेतु जो भी किया जाता है वह सहज सम्बन्ध में बाधा है । स्वार्थ प्रेम का मूल बाधक है । यह जब भी अदृश्य होगा प्रीति स्फुरित रहेगी ।
जगत बाधा नहीं है , जगत का सम्बन्ध बाधा है । मान लीजिये आप माने मोबाइल बाधा है परन्तु यहीं मोबाइल परहित हेतु सदुपयोगी हो तो उत्तम है , जैसे किसी दुर्घटना पर एम्बुलेन्स को बुला कर किसी का जीवन रक्षण करने में सहयोगी हो सकता है ।
स्वार्थ बाधक है , परमार्थ बाधक नहीं ।
देह बाधक है , अगर वह भोग विषय मे ही रोगों की ओर मृत्यु की ओर अग्रसर हो रही है , वहीँ यहीं देह सत्य के सँग में रस लेने लगे तो सहयोगी है... भजन-भाव सिद्धि के लिये ग्राह्य है ! सेवार्थ ग्राह्य है । भोगार्थ त्याज्य है ।
प्रत्येक स्थिति-काल-वस्तु-इच्छा सदुपयोग बिना मिटते नहीं है । जैसे निजसुख-स्वार्थ और विषय आदि की इच्छा मिटेगी सर्वहित की इच्छा के उदय होने पर । इच्छा बुरी बात नहीं , वस्तु बुरी बात नहीं उसका दुरुपयोग संकट लाता है ।
जैसे सरकारी विभाग जनसामान्य की सेवाओं हेतु प्राप्त वस्तु आदि को निज भोग हेतु वहन कर लेते है , सुखों की चाह पर परन्तु प्राप्ति वहाँ दुःखो की ही होती है । क्योंकि वह वस्तु सदुपयोग द्वारा ही अपना नश्वर प्रभाव मिटा सकती थी । ऐसे ही विधान द्वारा प्राप्त वस्तु सदुपयोगिता हेतु है ।
जिस तत्व को स्वयं के विलास हेतु भोगने पर तामसिक माना जाता है , वहीं तत्व ओषधी में सदुपयोगिता पाकर जीवनदाता होकर अपने होने को सिद्ध कर सकता है ।
हमारे आसपास की वस्तुएं , हमारे मन की स्थितियों को दिखाती है । परमार्थ के लिये शायद ही कोई वस्तु हम सँग रखें हो...
जैसे मोबाइल मन की ही तस्वीर है । व्यापारी के मोबाइल फोन में व्यापार ही भरा होगा । संगीतज्ञ के फोन में संगीत ही । जैसी मानसिकता वैसा ही मोबाइल होगा । मन की सत्ता शून्य हो तो मोबाइल छोटा सस्ता होगा । परन्तु मन की कृपणता से भी ऐसा हो सकता है , अति लोभी व्यापारी छोटा फोन रखते है , ऐसा नहीं कि उन्हें कहीं कोई भेंट करें तो वें महँगा ना रखेंगे , अपनी जेब कसी होती है वहाँ ।
परन्तु मोबाइल को मन माने तो परमार्थ के पथ में अपने मन की तो आवश्यकता ही नहीं ...परन्तु परमार्थ के पथ पर सहचारिता आवश्यक है , सद्भाव - सहयोगिता । ऊपर कहा न कि भोगजगत में वस्तुयें मन की दशा कहती , सभी वस्तुएं निज स्वार्थ हेतु बटोरी जाती है । परमार्थ हेतु वस्तुएं बटोर कर देखिये ...वह स्वयं भागेगी ...त्याग करना ना होगा । वह ही लोप हो जाएगी ।
स्वार्थ के लिये धारण वस्तु कितनी ही दिव्य हो , वह करती अनर्थ ही है । वस्तु की कोई सत्ता नहीं है , भावना की सत्ता है ।
वह कहावत सुनी होगी आपने बिल्ली के लिये कि ...हाथ मे माला बगल में छुरी । यहाँ माला भोग स्वार्थ हेतु ग्रहण है अतः भीतर की वृति के शुद्ध होने की आवश्यकता है । भले बाहर वस्तुयें जो हो अंतर से वहीँ से सदुपयोगिता प्रकट होवें ।
वस्तुओं का आदर वहीं करता है जो उन्हें अपनी नहीं मानता । अपने लिए नहीं मानता ।
वस्तुएं भी वहीं आकर गदगद होती है जहाँ उनकी सदुपयोगिता प्रकट होती है ।
प्रत्येक वस्तु चित्रकार और मूर्तिकार को तलाशती है , सुंदर चित्रकार उस वस्तु को ईश्वरवत महिम दर्शा देते है । तब उसी वस्तु से आश्रय की लालसा फूटने लगती है ।
प्रत्येक स्थिति-दशा-काल-वस्तु-अवस्था को भगवत अर्पण करने पर वह प्रसादवत वितरण करने और ग्रहण योग्य है ।
भोग-विषय-वस्तु के प्रति ममता को हटा कर इस ममत्व को सीधे प्राण प्यारे प्रभु के चरणों मे रखने पर ममत्व के अभाव में दृश्य रहता ही नहीं है । क्योंकि जहाँ की ममता है भीतर , वहीँ सँसार अनुभवित है ।
सँसार में ममता होने पर श्रीभगवत चरणों मे भी जीव सँसार को ही देखता है ।
ममत्व = मेरा । वह तो नित्य केवल श्री प्रभु ही है । शेष जो है उनका है , उनके हेतु है ।
तय हमें करना है क्योंकि हमारी स्थिति है जैसे ...मुख से राम बोलती बिल्ली जिसके भीतर चिन्तन चूहा हो (अर्थात स्वार्थ-भोग आदि) ...अब विषय रूपी चूहे को बाहर से छोड़ने भर से वह छुटा तो नहीं । तृषित । माया का अत्यधिक चिन्तन माया में पटक सकता है । प्रसाद का नित्य स्मरण शरणागति की रक्षा कर सकता है । एक ही वस्तु माया या प्रसाद हो सकती है । प्रसाद सर्वहितवत वितरण होगा । माया वाली वस्तु में भीतर बाहर अपना ही भोग-स्वार्थ होगा । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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