अदृश्य -- तृषित
*अदृश्य*
दृश्य की आवश्यकता है काल ...काल शून्य स्थिति दृष्टा और दृश्य का मिलन है । आँख पर हाथ रखने पर हथेली की रेखाओं की बारीकी नहीं दिखती क्योंकि स्पर्श होते ही दृश्य शक्ति का हरण हो जाता है , फिर स्पर्श से अनुभव रहता है ।
मधु को प्रकट करने वाली मधुमक्खी भी मधु में जब डूब जाती है तो उसकी मधुता में चलायमान नहीं रह सकती । अति निकट जो भी अनुभव है वहीं विकट यात्रा हो जाता है क्योंकि वह है यह अनुभव हो रहा होता है और उसका आस्वादन नहीं मिल रहा होता । भँवर फूलों की वाटिका में भृमण करें , यह आस्वादन स्थिति हुई भृमर की । परन्तु वह फुलनियाँ भृमर का अपहरण कर लें । अनन्त मधुतम-सुगन्धों में वह वशीभूत सा यह स्थिति प्रेम है इस स्थिति में पिपासु पर बिन्दु मात्र नहीं ...सुधा सरोवरबरसता है । और सरस् सरोवर सुधा पान का अनुभव तो ..अनुभव पराकाष्ठओं को हतप्रभ कर डालता है । मानिये ...किसी नन्हीं चींटी पर मूसलाधार बारिश बरस रही हो वह यहां वहाँ डूब रही हो ...बही जा रही हो अचानक कोई झुकी डाल उसे उठा लें , प्राण रह जावें ...फिर कोई पूछे मानसून यात्रा कैसी रही तो उसकी चेतना तब क्या उत्तर देगी ...तत्क्षण उसने अनुभव जुटाए ही कहाँ बस स्वयं के प्राणों की रक्षा की और स्वयं के प्राणों की रक्षा का वह अनुभव यथार्थ नहीं होगा क्योंकि उसी बरसात में मोर नाच रहे थे । सभी उन्मादित थे तो अवश्य उससे एक महा-उल्लास छूट गया क्योंकि वह उस उल्लास में डूबी थी और वह उल्लास बहुत ही अत्यधिक था उसके हेतु ।
महाभाव स्पर्श ऐसा ही है ...किसी चींटी पर बरसता सागर सा ।
रसिक जनों का जब प्राणरस सँगठित होता है तब वें अपने प्रेमास्पद को निहार भी नहीं पाते और रोम-रोम आह्लादित हो उठता है । अपनी न्यूनता और प्रेमास्पद की विपुलता सँग फूलती है प्रेमरस में । ऐसी स्थिति जहाँ अपने प्राण का स्मरण ही प्राण हरण कर लें ...नाम सुनने भर से , नाम गाने वाले की ही पूजा-अर्चना अंतर करने लगें , अति-लाड़ फुट ने को व्याकुल होने लगे ...यूँ चाटने का मन करें जैसे सिंहनी या गौ निज शिशु को लाड़ में चाट रही हो । परन्तु कभी-कभी मनुष्यता एक शाप हो जाती है , वह प्रेमोन्मादित होने में एक रेखा खींच देती है , वही पशु इस उन्माद में आह्लादित दिखते है । परन्तु यह रेखा ही भजन है । उन्माद की इस रेखा को ही गाढ़ करना मनुष्य के लिये साध्य हो सकता है । अति प्यारा लगना में नयन ही रोगी हो जाते है और रोम-रोम उस प्रेमास्पद के सँग में कम्प-पुलक आदि विकारों से भर जाता है । इन सात्विक विकारों के सम्पूर्ण प्रकट होने पर इन्हें पी कर सेवामय डटे रहना और भी जटिल प्रेमविद्या है जिसमें अपनी प्रत्येक स्थिति के सुख की अपेक्षा प्रेमास्पद के सुख का चिंतन है । अष्ट सात्विक विकारों की अति गाढ़ मधुता में डटे रहना वैसा है जैसे अतिगाढ़ मधु में डूबी मक्खियाँ परस्पर सेवा में लगी हो ।
अदृश्य की यहीं स्थिति जीव को भगवत सम्बन्ध विहीन होने पर रहती है , वह अति सुरस मधुर स्वरूप को नयन मुंद कर ही देख राजी हो जाता है । जबकि अति गाढ़ रसिक नयनों को फाड़-फाड़ कर स्थिर करने का साहस जुटाना चाहते है । भोग जगत प्रकट स्वरूप दर्शन कर सम्बन्ध और प्रीति अभाव में दर्शन काल मे भी बाहरी संकट को देख रहा होता ... प्रेम कभी बाहरी सुविधात्मक होकर प्रकट हुआ ही नहीं वह अंतर का ऐसा उत्स है जो मधु में डूब कर मरी किसी मक्खी की मुस्कान को पढ़ कर और डूबती मक्खियाँ समझती है ।
किसी पतंगे की ऐसी हद है जो ताप स्पर्श प्राण हरण पर थिरकती है और उस ताप की थिरकन पर कतार लगा कर पतंगे प्रतिक्षा कर रहें होते है ।
प्रपंची/भोग जगत के लिये जो सरस-चिंतामणि नित्य प्रकट होकर भी अप्रकट है , उसे कोई उत्स नहीं होता भगवत स्वरूप को अनुभव कर वैसे ही उस अनुभव का तूफान डूबा देता है किसी के नयनों की नाव को अपने ही सरस सिन्धु की कोमल चिपचिपाहट में । माधुर्य सुधा में नित्य डूबे और भीगे और ऐसी गाढ़ता में सेवामय रसिक वृत्तियों को कोटि-कोटि नमन । नमन मात्र पूर्णता कहाँ ...पशु होते तो मधुरातीत मधुर अनुरागवती पदरज चाटते पीछे-पीछेे फिरते...तृषित । हे भगवती वाराही श्रीवृंदावन की धरा पर निजस्वरूप वपु देकर सदा के लिए विहरणे दो वहाँ... जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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