बंकिम छटा -- तृषित

*बंकिम छटा*

दृश्य जगत में जीव चहूँ ओर स्वयं का विलास देखना चाहता है , यहीं मूल कामना लघु-दीर्घ होकर जीव को इस प्रपञ्च से बांध देती है । जीवन की बहुत सी वृतियों में हम अनुभव करते है कि हम निरहंकारी-सहज-निर्मलतम अद्भुत कृति है श्रीप्रभु की , सभी से कुछ तो विशेष है हमारे भीतर । दिवारात्रि जीव के सभी प्रयास अहम् की पुष्टि है । जीव की मति इतनी अविद्या में धँसी है कि वह अपनी सद्गति के पथ पर भी दुर्गति के पथ पर उल्टा चलता है । जीव की जड़ता इस जडिय संसार से अभिन्न है , अतः अपने विषय भोग हमें भगवदीय जीवन सा प्रतीत भर होते है । जीव इन विषय भोगों के व्यसन में ऐसा ग्रस्त है कि किसी भी स्थिति में वह विषय से मुक्ति नहीं चाहता , वह विषय शून्य होकर स्वयं को एक क्षण में किसी नृपति के रंक होने सा अनुभव करता है , अपितु मृत्यु को उत्तम कहता है ...विषय सुख बिना जीव जीवन की कल्पना भी नही कर पाता ।
यहाँ विचित्रताओं का समूह यह प्रेम पथ बड़ा विकट है , यहाँ एक मात्र अनन्यता वास करती है , वहीँ विलास करती है और वहीं इस प्रेमरस श्रृंगार को चहुँ ओर स्फुरित करती है । प्रेम की घाटी पर केवल प्रेम का रथ पहुंचता है । मन रूपी रथ तो तब ही गति करें न ...जब मति-गति एक दिशा में हो अर्थात प्रेम का एकांकी लक्ष्य केवल प्रेम है और एक मे सम्पूर्ण प्रेम जब ही सम्भव है , जब वह एक ही सम्पूर्णतम हो । ...यहाँ तक की इच्छा जीव की ईश्वर से प्रेममयता की है , परन्तु प्रेममय श्रीप्रियाप्रियतम सहज कृपा कर अपना बाहरी ऐश्वर्य सर्वदा के लिये ज्यों ही उतारते है त्यों ही आंतरिक माधुर्य का मधुरामृत निर्मल कोमलतम ऐश्वर्य चहुँ ओर प्रकट होता है , श्रीयुगल नयन अपने प्रेमालाप भरे नयनो से सजा श्रीवृन्दावन का सरल-सुंदर-सुरंगित प्रेम दर्शन कर द्रविभूत होने लगते है ।
प्रेम ...इस प्रेम के नयन तो बंकिम है ... और उन सरसतम बंकिम नयनों को दृश्य भी बाँकी छटा ही है । सम्पूर्ण श्रृंगार-रस निहारते यह सहज श्रृंगारमय महाभाव-नयन निहारते है बंकिम श्रृंगार रसराज । जहाँ दृश्य जगत में कदापि स्वार्थ सिद्धि के मनोरथ भँग नहीं होते, वहीं नित्यसहज प्रेम में निज प्रेमास्पद के दर्शन से कदापि तृप्ति सम्भव नहीं होती ...ऐसे अतृप्त हुए से नित्य प्रेमास्पद के सुख को नयनकोर से गाँठ-बाँधे , एक ही रस से सघन-प्रेम-अर्चना भरे नयन है श्रीकिशोरी जू के । सहज अभिन्न है प्रियतम के सुख से । सहज अभिन्न नयन है त्रिभंगी बंकिम छटा से । जैसे स्वयं प्रियतम ही नयनवत वहाँ पिरो दिए गए हो । वस्तुतः इन बंकिम नयनों के दो प्यालों में यह प्रियतम प्रभु जितने भरे है उतने यह इनसे पृथक स्वयं के पृथक स्वरूप में भी नही ...अर्थात किशोरी जू के नयनों में वें जितना भरे है उतने वें स्वयं में भी नहीं है । इतने श्यामल सुखपुंज है श्रीकिशोरी नयन । कैसी परस्पर पुष्टि है परन्तु जीव कदापि किसी एक वृत्ति सँग ऐसा अनन्य हो सका , जीव की दृष्टि सदा विषय खोजती है । जबकि वास्तविक खोज तो प्रेमी की है वह एक माधुरी झाँकी में ही अनन्त जीवन झांकियों को अनुभव रखता है । अपितु वह एक-एक झाँकी अनन्त माधुर्यता की वर्षाओं से भरी होती है , प्रेमी बड़े बाँके सरोवर में गोते पर गोता लगाता है । जीव भोग विषयों में ऐसा रमा है कि नित्य सहज श्रीयुगल के रस प्रेम का आस्वदनीय लाभ नित्य प्रकट रूप से खो रहा है । प्रेमानुभव हीन जीव प्रेम के स्वांग में परस्पर केवल भोग-विषयों को ही पी रहा है और पिला भी रहा है , भोगी जीव को रसप्रेम गोता में भीगी स्थिति से भी लालसा न प्रकट होकर परिहास भर रहता है । दया का पात्र भोगी जीव , प्रेमी की सरस् डुबकियों को देखकर ऐसा अनुभव करता है जैसे अन्य साथी की कटी-पतंग को देखकर जो स्थिति हो ...अवसरवादिता ।   जबकि वहीं प्रेम को सहज निहारते नयन हावभाव के कोमल स्वांग धारण करते हुए अनन्त-अनन्त सुखवर्षा पिला रहे है ...यहाँ मधुरतम अचिंतनीय दिव्य-अवसर नित्य बरसते है ।
वास्तविक प्रेम तो घोषणा नहीं कर सकता कि वह कितना निकट है अपने प्रेमास्पद और उनके सुख से जबकि प्रेम का अभिनय करता जगत सदा अभिव्यक्ति देता है कि वह प्रेम को पा चुका है , तत्वतः  प्रेम और वह तो एक ही है ।
विचित्रता है प्रेम बड़ी दुर्लभतम स्थिति है जीव हेतु क्योंकि जीव जड़ता सँग नहीं छोड़ सकता और प्रेम नित्य सच्चिदानन्द को सरसित नवनव जीवनात्मक मधुरामृत-रससुधावर्षाओं में भिगोये देता है ।
प्रेम अति कोमल है ,अन्य धातुओं में अर्थात शब्दकोश में उसका राग प्रकट नहीं हो सकता । वह तो बाँस की बंशी सा विशुद्ध स्वर है जिसका आस्वादन अचिंतनीय मधुता से भरा होता है ।  क्या इस जगत में कोई ऐसा साहूकार है जो अपना सर्वस्व सत्य में  बाँस की बाँसुरी के स्वर को सुनने भर को बेच सकें ?
क्या सत्य में इस व्यापक जगत में प्रेम ही सबके लिये अमूल्य निधि है क्योंकि कोई भी पृथक वस्तु का मूल्य शेष रहे तो प्रेम के बंकिम नयन खुलते ही कहाँ है... ...और इन बंकिम नयनों में जो मधुतम स्वरूप का बिहार है वह तो अन्यत्र है नहीं ऐसा बाँका सौदा कोई बेहोशी में ही कर पाता है । वरन संसार सदा स्वहित चिंता का नाम ही है और प्रेम का यह सरस् निकुंज सदा प्रेमास्पद सुख श्रृंगार का धाम है । धामों में सरस् धाम है श्रीकिशोरी के बंकिम नयन का अद्भुत बंकिम सरस् माधुर्य पान अत्यन्त सरसतम निधि है जिसे प्रेम ही...  क्योंकि लौकिक विषयी जीव को प्रीति के नयनों का माधुर्यामृत रसास्वादन कदापि नहीं हो सकता , केवल निज श्रीप्रिया-दृगकोर कृपापात्र-सेविका इस परमोच्च सुख की सेविका है ...विचित्र बंकिम मधुता है इस ...तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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