एकाग्र सामुहिक अभिसार तृषित (5 अप्रेल 2020 प्रकाश उत्सव हेतु)

*एकाग्र सामुहिक अभिसार*
(... 5 अप्रेल की यह रात्रि सम्भवतः वह आज शायद ही विश्राम पावें उनके हृदय में कोटि कोटि ह्रदयों से भरा उन्माद आज उन्हें सोने ना दिया होगा ... आज वह अपने प्रयासों के प्रति पुनः ईंधन प्राप्त कर चुके है , पुनः कल की सुंदरता हेतु भगवती निद्रा उन्हें सुखद विश्राम भी दें )
बहुत तरह के फल फूल और सहज खग और सरोवर तथा सरोवर के सुन्दर रसचर का एक सँग होना कुँज है । भाव रूपी फूलों का समुह , हमारे भिन्न-भिन्न भाव होने से नवीन भावफूलों में भी एक चेतना या उत्सव नाच उठता है । स्वयं को एक कुँज का पुष्प मानकर कुँज का सुख ही अभिष्ट हो तब ....
जीव रूपी प्रकाश कण में अपने अहंकार के सँग से स्वयं को सूर्य सिद्ध करने के कई प्रयास जब विफल होते ही होते है तब स्वयं का भार एक कठोर आवरण बना देता है और जब कोई ज्येष्ठ परिजन या घर के बड़े जन शिशु को गोद में रखते है तब उसकी नींद और खेल दोनों सहज सच्चे होते है । अर्थात् जीवन रूपी लीला का सँग प्रकट होता है स्वयं को एक परिकर या सूर्य का प्रकाश कण अथवा ईश्वर या राजा  की महिमा से परिचित एक दीन सेवक पर यह स्वयं को अर्पित करना तो उत्सवों में स्थिर होने का क्षण भर है यहाँ स्वयं को शरण मे निवेदन कर सेवा पा लेने पर परिकर रूपी एक दुर्लभ सुख है । क्योंकि आनन्द जब व्यापक होता है तो मछली को जैसे सागर पीने को मिल गया हो ... किसी खग को पूरा नभ मिल गया हो ।
नई पीढ़ी के जीव का विगत पीढ़ियों से मतभेद पाया जाता है सो वह संस्कार-संस्कृति या शास्त्र को भूल चुका है परन्तु यही अवहेलना किया जनमानस जब एक कृत्य भी शास्त्र की मर्यादा का अपने गुरुजन की आज्ञा से अपरिचित होकर भी पालन करता है तो सम्भवतः यह जीवन के अविस्मरणीय क्षणों में अंकित क्षण होता है ।
जीव के भिन्न ताप(रोग) है आधिदैविक - अधिभौतिकी - आध्यात्मिक और सभी ताप या रोगों के संक्रमित सभी ओर फैले भी है परंतु अपनी सन्तान का ताप भगवत् व्यापकमय वपु अपनी करुणा दृष्टि से पीड़ाओं को स्वयं में भर लेने के लिये उत्कंठित है , ऐसे ही राजा या मात-पित-गुरु भी है ...शिवि-रत्नीदेव आदि कई राजाओं के चरित सबने ही मनन किये होगें और नहीं किये है तो कल्पना में मनोरंजन छोड़कर वास्तविक पुराणों का किन्हीं सन्तों के समक्ष चिंतन पीजिये पर वह समागम भी वास्तविक हो बाह्य भव्यता नहीं अपितु कल्याणात्मक करुणा और लालसा का सँगम घटे । विचार ही नहीं किया जा सकता कि भारत के यह गम्भीर गर्त में गीरी स्थिति में कोई नायक ऐसे प्राप्त होंगे जिनमें भृष्टता नहीं है अपितु दिव्य सुगन्धें है जो अगर किसी को ना आती तो एक राजा की याचना क्यों मानी जाती कुछ तो सत्य सा दिव्य है उनमें ... (परमार्थ) ।
वर्तमान नेतृत्व भृष्ट हो और जनमानस में धर्म-कर्म या भक्ति-प्रेम का आभासित स्थान भी क्षीण हो जावें तो हमें काल ग्रस्त होते देर ना लगे पर कुछ सिद्ध सन्तों और कर्मठ सेवकों की बलिहार से तथा एक दिव्य चेतन प्राप्त इन नेतृत्व की क्षमता से कौनसा क्षण उत्सवित हो उठे कह नहीं सकते । इस पूरे प्रकरण में एक सहज शरणागति तत्व भी है , तो एक सूर्य भी है और एक प्रकाश कण भी है । कण तो अंधकार में भी है पर सूर्य के सँग वह उन्मादित दृश्य हो उठते है , देखें कभी खिड़की से आती भास्कर की किरण को । सूर्य सा नेतृत्व न हो तो प्रकाश का आवाहन असम्भव है , वह स्थिति अपनी शक्ति से चाहे जितनी देर कृत्रिम प्रकाश (विद्युत) को नियत करने में समर्थ होकर सदैन्य वह विनय कर बैठी जो हृदय को सता रहा होगा ...एक विराट परिवार और भीष्ण आपदा के संकेत...
वर्तमान कई विहंगम स्थितियों में बारम्बार भृष्ट होते जन मानस को भी यह नायक रूपी नेतृत्व (श्रीमोदी जी) कैसे अपनत्व के बल से खेंच कर उसे सहभागिता का प्रथम स्पर्श कराते है जो सम्भवतः सैकड़ो वर्षों में किन्हीं शिष्टाचार पूरित जनमानस को मिला हो क्योंकि प्रजा को लूटकर ही राजा बनते रहे है जबकि करुणा-उद्धार और गहन विराट परिवार की चिंता स्पष्ट दृष्टि गोचर हो सकती है , यह चिंता अपनेपन से है वरण राज काल का भोग रूपी सुख और विलास प्रजा की पीड़ाओं को सदियों से भूलता रहा है । जो भावुक मुझे पढ़ते हो अथवा परिचित हो ...वह जानते ही होगें कि मैं समसामयिक विषयों में रुचि ना रख भाव साधना की ओर ही अग्रसर रहने के लिये कुछ चेष्टामय हो पाता हूँ ,परन्तु इतना दिव्य आवाहन और उसकी सिद्धि   केवल पुराण कथाओं में ही सुनी थी और जब पूरा राष्ट्र स्वयं को अर्पित करता है किन्हीं शब्दों पर तो समूचा राष्ट्र एक उत्स भीतर पाता है , श्री मान्यवर महोदय पर हम सभी ने अपने संस्कारों के सँग दीप या प्रकाश उत्सव मनाया अर्थात् कहीं नाचते हुए तो कहीं पटाखों सँग परन्तु वह क्षण विडियोवत तनिक दस मिनट यह मानकर कि एक पूरे राष्ट्र की गतिविधि पहली बार दीर्घ काल तक स्थगित है कितने ही तरह के संकट और हालात बन रहे होंगे यह जिन परिवारों में विवाह उत्सव या मृत्यु कभी घटी हो स्मृत कर सकते है ,
...कोटि-कोटि जनों की रोग पीड़ा से रोकर कौन उस पीड़ा को समेटना चाहता होगा , एक छबि मैंने दी है सँग ... यहाँ राष्ट्र पर समस्या है ...सब किसी तरह लम्बी अवधि से अपनी चर्या में मनोरंजन या साधना-कला आदि में है परन्तु एक नायक राजपीठ अचानक इस स्थगित 21 दिवस के कालखण्ड में कहती है कि दीपक प्रज्ज्वल करते है ...क्यों ?? और देश धर्म सबका धर्म माना जाता है यह मानकर कहते है कि सभी भारतीयों के लिये मंगल कामना सँग मंगल प्रकाश घर घर कर देना ... (एक राजा अहंकार चिंतन से ऐसे आवाहन नहीं कर सकते क्योंकि प्रतिष्ठा दाव पर लग जाती है और राजनीति तो अवसरवादी होना होता है जबकि यहाँ पितावत सँग सुलभ है)
अपना मानकर अपनी राष्ट्र चिंता को वर्गीकृत कर आहुत करने हेतु कि अब आप सबका दीपक ही मुझे (मान्यवर श्रीमोदी जी) उत्साह दे सकेगा ...उनका हृदय छोटा नहीं है कि एक दीपक से प्रज्ज्वलित हो उठे , ना ही उनका उदर एकांकी होगा सोचिये हम अपनी संतानों सँग फोन लेपटॉप शेयर नहीं करते और यहाँ सबको एक साथ रामायण  रूपी उत्स से जगाया सुलाया जा रहा । मुझे नहीं लगता कि किसी ने राष्ट्र की चिंता में यह बीता हुआ अवकाश काल बिताया हो , हम तो प्रकाश के कण है ...चेतन है पर ..सब चलता ही है मोबाईल गेम से लेकर विनाशक फिल्में भी भाती है । कहीं उड़ते इन कणों को एक सुंदर किरण में बाँध कर उत्सवित परमार्थ रूपी धाम पर ले जाते यह नायक ...उत्साहवर्द्धन क्या हमने अपेक्षित किया था ...कौन होगा वह जो उत्साह की दवा ले रहा हो इस काल खंड में । जनमानस को अपनी चिंता रहती है पर राष्ट्र नायक को राष्ट्र चिन्ता और एक माँ को खेलते बालक से ही आह्लाद बन पाता है सो राष्ट्र उत्साह ही उनके उत्साह का जीवन है । वह समग्र राष्ट्र चिंता उस दीप प्रज्ज्वल में आहुत हुई ही उनके छबि पटल से जब सहज ही राष्ट्र ने इसे राष्ट्रीय पर्व से भी अधिक रुचि से मनाया।  देश और विश्व चिंतन कर रहा था कि क्यों आवश्यकता है इस प्रज्ज्वल की , कौन है जो रुदित होकर तमस से छूटने को व्याकुल है ...भारत माँ के सुत रूपी यही स्वरूप और इन्हीं की व्याकुलता का उपचार हुआ इस सामूहिक अभिसार में । अभिसार अर्थात् भावों का बहाव-झरण आदि ... । जो इस उत्सव में भागीदार न हुए होगें वह उसी तरह अभाव अनुभव करेंगे जैसे कोई प्यासे के तिरस्कार पर करता है । राजाओं ने दीप के लिये साधन दिए होगें पर राष्ट्रहित मे इतनी दुर्लभ एकता का सामर्थ्य शायद कभी हुआ हो । बहुत वें भी होगें जो तामसिक प्रवृतियों भरे होने के कारण इस उत्सव में ही दोष निकाल कर बच गए होगें क्योंकि दीप प्रज्जवल एक पवित्र क्रिया है , अग्नि सर्वाधिक शुद्ध तत्व है जबकि पूजन के नियमित भोक्ता जानते है कि हस्त प्रक्षालन दीपक प्रज्ज्वल बाद भी होता है । क्योंकि चेतन अर्चक अप्राकृत अवस्था है और प्रेमास्पद सँग अग्नि भरित हृदय लेकर अग्निविलास नहीं खेल सकते ।  फिर भी अग्नि सँग ही साधना सिद्ध होती है , ताप या विपत्ति आदि को तप-साधना-नाममन्त्र से आहुत किया जा सकता है परन्तु भोग विषय युग और पाश्चात्य संस्कृति के दास होने से हम वंचित रहना चाहते है तप से  (प्रतिकूलता रूपी अनुष्ठान में सरस भगवत नामरस का सँग) । वही तप की विभक्ति आने वाले ताप को नियत कर सकती है , जैसे कागज एक बार जलकर फिर नहीं जलता है वैसे ही दीपक या प्रकाश होने पर उतना जीवन क्षेत्र अंधकार नहीं छुता है । एक दीपक की लौ जितनी चेतना और उसकी आभा जितना तेजोमय हृदय । वही दीपक अगर यज्ञ हो जावें तो वह एक सुंदर भोजन पक सकता है दिव्य अतृप्त शक्तियों हेतु और इस सेवा में भीगा तेजोमय सुगन्धित जीवन भी । इस अभिसार में सहज ही बहुतों द्वारा एक से अधिक दीपक जलें , क्योंकि भारत अभी तक स्व के लिये आहार जुटाने मात्र रूपी पाश्चात्य पर नही आया है , हम सभी का परिवार है , और चिन्ता एकांकी न होकर पारिवारिक या सामाजिक होती है ...दिव्य शक्तियों के ऋण भी इस धरा के जीव को तप में निरत रखते है ...मन की उत्पति से तप काल भी ताप काल हो उठता है जब (प्रतिकुलता से आध्यात्मिक अवसर ना मिल सकते हो) ...इस अवकाश कालखण्ड में अनावश्यक संसाधन का सँग भी छूटा है जिससे भीतर बाह्य सौंदर्य बढ़ सकता है । जीवन में सीमित संसाधन जीवन के रस को विराट कर देते है । एक सुराज्य के प्रार्थी नायक का सँग पाये हम सभी सत्य के ऐसे सैनिक का सँग छोड़ नही पाते है क्योंकि राम का दिया ही अपनत्व राम प्रेम में बाध्य करता है । यहाँ मूल में इनकी हृदयगत सत्यता का भी दर्शन होता है क्योंकि मिथ्याभाषी भी मिथ्याभाषी का सँग नहीं चाहता है और सत्य का संवाद केवल सत्य से होता है सो इन राष्ट्रप्रिय नायक का सत्य हमारे किन्हीं बुझे सत्य को प्रकाशित करने को कह ही देता है कि प्रकाश प्रज्ज्वलन करें । इस संस्कृति में राजा के निमित्त आहुतियां ...तर्पण  ... मार्जन होते रहे है । हमें नित्य ही प्रकट-अप्रकट इन श्री व्यापक करूण हृदय के प्रति प्रार्थनामय रहना चाहिए ...भगवती श्रीवसुन्धरा इन्हें अष्ट वसुओं के सँग दिव्य पोषक आवरण में रख राष्ट्र निर्माण में सँग प्रदान करें ...वसुंधरा भी भारतवर्ष के स्वर्णिम काल को विश्व में फिर लहराना चाहती ही होगी । धर्म निरत रहे , मानवता और सद्भावना को प्राथमिकता दें । युगल तृषित ।  सभी भारतीयों तक यह भावना प्रसाद वितरण करें । चिंतन करें ...क्या आपने दीपक में भारती और कोटि कोटि भारतीयों की स्वस्थ चेतन को नमन किया अथवा पटाखों में खग आदि जीवों के प्रति चिन्ताहिंता प्रकट की ...

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