प्रेम संवाद , तृषित

भोगार्थ अर्जित ज्ञान-शिक्षा - भाषाओं सँग वृन्दावनिय निकुँज प्रेम का संयोग प्रकट नहीं हो पाता है ।

निकुँज विलास प्रेम कोक-कला रस भरित है सो अगर परम्परागत बोध-भाषा प्रकट ना भी हो तब प्राकृत अर्जित बोध को भस्म करने की ललक रहनी चाहिये । आज साधकों में दशकों-वर्षों से वृन्दावनिय वास होने पर भी भाषा ही रस वाणियों में नहीं हो पाती ।

हिन्दी या ब्रजभाषा भी कठिन प्रतीत हो तब भी प्रेम की भाषा सहज है कोक कला वत । यह भाषा पुष्प - लता - खग - और कुछ पशु जैसे हिरण - खरगोश - गिलहरी आदि नृत्यमय जीवों में लास्यवत तनिक आभासित है । 

प्राकृत भाषा या शिक्षा आदि का सँग न भी छूटे तो लालसा तो होवें ही सहज सरस गोपाल के सहज सरस रस में भीगकर वधुता को छूने की । विरक्त वृन्दावनिय निकुँज रस के साधक तो प्रयास करें ही प्राकृत जीवन से छूटने का , जिस शैली से छूटना है उसका बड़ा उल्लास से सँग ना हो सकेगा । हिन्दी या सहज भाषाएँ जीवनस्थ ना हो पाती हो और वृन्दावनिय रसिकों की लिपि से आत्मीयता नहीं उदय होवें तो कम से कम प्रियतम के सुख के लिये केवल भजन करते हुए हृदय से वार्ता की प्रेम सिद्धता प्राप्त करें , रसार्थ विरक्त होने पर भी विदेशी भाषा और जीवन शैली भीतर रहती है तो वधु ने प्रियतम को प्रेम सुख देने की लालसा से पाणिग्रहण नहीं किया है । रस के लिये विरक्त स्थिति तो प्रियतम के नवीन सुखों की सेवामयी वधुवत गलित भरित मधुर सहज दुल्हिनी सी दासी स्थिति होनी चाहिये । एक विरक्त साधक का अंग्रेजी चिंतन पढ़ यह पीड़ा उठी है क्योंकि जिनके लिये सब कुछ छोड़ना चाहा गया है उनके सुख की भाषा को तो भीतर भरने की लालसा हो वह प्रेम की भाषा किन्हीं शब्दों के लिये विवश नहीं है ..वह नित्य लास्यमयी (नृत्यमयी) सहज रसिली कोक विलास वत संवादित है । प्रेमी तो फूल-तितली-नदी-बादल-नभ-धरा आदि से भी शब्द रहित रसीला संवाद रख सकता है ।

आधुनिक मानव बसन्त शरद पावस का उत्स नहीं मना पाता जबकि कोयल - हँस - मयूर आदि सहज इन रसों की नवीनता में उत्सवित रहते है । 

भावना को कल्पना से सहजता की ओर बहाने के लिये हृदय में सहजता का आदर वर्द्धन होता रहें । सहज स्थितियों की रज सेवा भी चन्दन-केशर-कर्पूर-मेहँदी आदि से सहज श्रृंगारित है ।

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