विस्मृति दान , तृषित
*विस्मृति दान*
प्रेम के विचित्र खेल है , प्रेम प्रेमास्पद को सुख देना है । प्रेम रस जीवन-विलास देना है ... ! प्रेमी के जितने भी निज संकल्पित सुख है उनकी सिद्धियाँ प्रेम नहीं है । प्रेम तो प्रेमास्पद प्रियतम के अग्रिम स्वप्नों की सजावट है । प्रेमियों के हृदय में निज प्रेमी प्राणप्रियतम का वास है और उनकी सेवा भरा जीवन उल्लसित है । रस रीति में तो निज प्रेम के भी प्रेम के भी प्रेम की सेवाओं के गीत गाये जाते है । श्रीप्रिया पद दासी खगावली गाती है प्रियतम हृदय के वह कौतुक जो वह स्वयं कह नहीं पाते ..कैसे ? ...पद रति चुगकर जीवन मय मंजरियाँ कैसे श्रीप्रियतम के हृदयोत्सवों को रच देती है , निज प्राण श्रीप्रिया का हृदय सुख रचने हेतु ही उनके श्रीप्राणवल्लभ का श्रृंगार रचती श्रीहित सजनियों की कितनी ही कतारें पुकारती है श्रीप्रिया को श्रीराधावल्लभलाल कहकर क्योंकि प्रेमी पुकार से भी उत्स देना चाहता है हृदय प्रेमास्पदे को । प्रेमी के जीवन चरित को केवल प्रेमी समेट सकते है क्योंकि उनमें निजता जो प्रकट है वह प्रेमास्पद का हृदय सुख है । फिर प्रेम को सिद्ध करना हो तो उपाय कहा जाता है त्याग , पर पीड़ा भरा त्याग नहीं अपितु सुख देता हुआ सहज त्याग और त्याग भी ऐसा जिसका संकल्प नहीं उठ सकता हो । ज्यों-ज्यों पथ में निजता नई होगी त्यों-त्यों त्याग भी श्रृंगारित होगा । केवल जड़ भोग विषय त्याग प्रेम नहीं है , वह तो कभी न कभी छूट ही जावेगें । प्रेम के त्याग रसीले है उनमें पीड़ा केवल प्रेमियों में रँग भरने को अभिव्यक्त है वरण भीतर यह त्याग केवल उत्स हो खिल रहे होते । जननी निज सुख से प्रेम कर सदा उसे हृदय से लिपटाये रखें तो वह उसे रस जीवन नहीं दे पाएगी , रस जीवन देने हेतु उसे अपना आलिंगन त्यागना ही होता और शिशु जो भी इस आलिंगन से शेष छूटकर पाता है वह जननी को निजतम अपना बृहद हुआ आलिंगन ही लगता है । कुशलता कहाँ भँग होती श्री कौशलेश श्रीराम में जो मिली है कौशल्या अनुराग से । वनवास तो श्रीजननी हिय ने भोगा होता है , और बड़ी सहजता से पशु-पक्षी रूपी जननियाँ भी यह खेल सकती है । निज शिशु के जीवन श्रृंगार हेतु उसके सँग का त्याग । जब तक शिशु का त्याग माँ को विरह देता है तब तक शिशु विद्यालय में विलाप करता है , और जब जननी सहज हो उसके लौटने के श्रृंगार करती है तब वह अपनी जीवन क्रीड़ा को गति दे पाता है । यही तो यश ददाति इति यशोदा रचती रहती है नित्य । यही तो नित्य कौशलपुर (कुशलता) वास देती कौशल्या देती है । सो प्रेम के त्याग वह नहीं जो सहज घट सकें , वह है जो प्राण लेकर घटे पर उस प्राण दान में उत्स ही हिंडोलित हो । प्रति हिंडोल में झूले पर झूलते शिशु को दूर करने का अभ्यास करती जननी , निज हिय की रमक से खेंचती है निकट । त्यों प्रेम के उत्स इतने गहन कन्दराओं से उठते कि लीला रूपी कन्दरा के दो छोर पर बैठे प्रेमी प्रेमास्पद दृश्य हो उठते सो मध्य में यह एक लीला दो हृदयों का परस्पर उत्स है जो घटा है सघन सुख देने की उतावली लहरों से । विलास सेविका में सेवा-सुख की लहरें इतनी है कि वें प्रति निहार नई दासियों को भेज पड़ती है , सेवक द्वारा अर्पित एक - एक कोर सप्राण नवीन सुख है । सेवक में प्रेममयी निजता हो निज प्रेमास्पद सँग । नव ताप में आवेशित भास्कर को नवीन भाव पुष्पों की ललिताओं से थामती वह सघन कृष्णिमाएँ निज हृदय द्वार पर पट लगा नयन मुँद बैठी होती प्रेमास्पद को सुख सैज देकर । शिशु को सुलाने के लिये सोने का अभिनय करना होता ही , परन्तु वह खेलती रहे अपना ही सुख प्रेम समझे तब तक वह रच सरस नहीं सकती प्रेम । प्रेम तो प्रेमास्पद का खिलता जीवन है , दो नयनों की एक झाँकी ..दो अधरों में सिमटी एक रसना दो कर्णपुटो में गूँजती एक ध्वनि । त्यों प्रेमी के पास हृदय भी दो है एक वह जो सब उसका समझते पर वह दिया जा चुका और एक वह जो प्रेमास्पद प्राण ने दे दिया और सहजते नहीं बन रहा । प्रेमी के प्रेमास्पद सदा सरस् लीलामय आनन्दित है क्योंकि वह कष्ट नहीं रचता अपने प्रेमी का । और फूलों में सुख रचने हेतु देना होता है , शाखाओं को कोमल अवतरण । सो प्रेमी प्रियतम के नित्य उत्स ही उठ पाते क्योंकि प्रेम में वह ही रचती है प्रेम शाखाएं । सुख रूपी फल तो प्रकट ही प्रियतम हेतु होता है , जल हीन वल्लरी भी रसफल देती है रस ब्रह्म को । रसवती लतिकाएं रस पीने देती है भृमर प्रियतम को , रस विपुलता से ही भृमर ने अनेक नवभाव आकार लिये है अगर कुँज के सभी फूल अपना सभी रस एक फुलनी को सेवा में दे सकें तो भृमर भी अनन्य होकर एक फूलनी सँग ही अभिभूत हो उठे , श्रीराधावल्लभ लाल । युगल तृषित । भृमर दान से पियप्यारी फूल जोरि के सन्निकट मंडराती अलियाँ - भृमरियाँ (सुख थाल देती उतावली लहरें) । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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