प्रीति प्रियतम , तृषित

प्रीति-प्रियतम

उन्हें ऐसे सौन्दर्य लावण्य माधुर्य की पिपासा है ...जिसकी स्मृति से ही उनके ही दिव्य देह चराचर जगत प्रेमासक्त हो उनके प्रति आकर्षित होते है ।
जो खेंचता है ...वह कृष्ण है । (माधुर्यता से)
परन्तु कृष्ण जो खेंचते वह खेंचने की शक्ति उनमें राधा है । राधा का स्मरण ही चराचर जगत में व्याप्त प्रीति तत्व को खेंचता है । जीव नहीँ , पदार्थ नहीँ , उसका मूल प्रीति तत्व उनके प्रति खींचा चला जाता है । जिसकी (प्रीति की) बाधा का नाम ही जीव तत्व है । मूलतः किसी भी प्रमाण से जगत का कारण ...प्रीति का विस्तरण-अवतरण ...विलास विवर्त ही तो है । वह ही रसचेतन है और उनमें  झरता-भरता रस श्रीप्रिया । कही भी प्रीति न हो तो चित (रसार्थ) उस तरफ कभी गमन नहीँ करता । वस्तुतः वही मूल प्रीति (राधा) मूल मधुरतम-प्रियतम से मिल कर तृप्त हो सकती है ...शेष श्री मधुरेश से लेना ही चाह रहे है , उनकी तृषा का अनुभव ही तो श्रीकिशोरी का भावराज्य-विलास सूत्र है।
इच्छा के त्याग को शास्त्र और सिद्ध क्यों कहते है , क्योंकि जीव की बाह्य इच्छा रुकें तब वह उस प्रीति को जीवन कर सकेगा और वह तो पदार्थ , वस्तु आदि सर्वत्र एक ही प्रियतम को खोज रही है । प्रीति का प्रकट यह जीवन ही भक्ति है, इच्छा रहित होते ही ... प्रीति ही व्याकुल हो वास्तविक पथ की और भागती और प्रियतम भी प्राकृत इच्छा के अप्राकृत होने पर त्रिगुणात्म से परे निर्गुणात्म नित्यहित स्वरूपा श्री निज-आह्लादिनी श्रीराधा की और ही गमन करते है , ऐसा होते ही जीव के हृदय पर उसकी  हृदयभावना (भावदेह) के सहचरत्व  सँग प्रियतम अपनी ही निजप्रीति संग प्रकट होते है । यह मिलन जीव का मिलन नहीँ है ,वह यहाँ सेवक है , यह उसके मूल बीज (रस) और मूल प्रकृति (महाभाव) का यानी रूप और प्रेम का ...श्रीकृष्ण और श्रीराधा का मिलन है ।
लौकिक इच्छा से जीव ईश्वर के प्रीति तत्व का गहन अनादर करता है । क्योंकि सहज इच्छा-शक्ति स्वभाविक रूप से कृष्ण अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीँ कर सकती । जीव के हृदय  में श्रीकृष्ण की इच्छा (कृष्णेच्छा) या सुख रूपी श्यामा अर्थात प्रीति का प्रकट होना ही भक्ति है और यह अति न्यूनतम हो पाता है क्योंकि जीव न इच्छा को त्याग पाता है न ही अहंकार को । ईश्वर की व्यवहारिक लीला में भी उनके रस की बाधा ईश्वर सुख के अतिरिक्त इच्छा और अहंकार ही है जिसके कारण बाह्य विरह हुआ है । ऐसा ही जीव करता है , उसके जीवन का क्षण-क्षण अहंकार है । भोगी जीव सेवार्थ पथिक नहीं है ...कामनाओं की सिद्धि का ही याचक भर है ।उसका वास्तविक आत्म तत्व जिसके लिये आत्मा ने युगों की यात्रा की वह प्रियतम प्यारे श्रीमोहन है , परन्तु हृदय में नित्य प्रकट प्रभु अप्रकट अनुभूत है तो इसलिय कि वह हृदय पर प्रीति हेतु ही प्रकट होंगे । जीव राधा नहीँ ... निकुंज (सुखविलास) हो सकता है । जिसमें प्रीति अपने प्रेमास्पद से मिलती है , और युगल लीला प्रकट रहती है। ईश्वर के सुख की यह प्रीति क्यों जीव में उतरी ..मात्र उन्हें (प्यारे जू को) नवीनसुख देने को ।
मान लीजिये श्रीप्रिया हिरनी के खिलौने में प्रवेश कर गई ... उन्हें रिझाने को पर , वह खिलौना प्रिया की भावना और प्रियतम सुख को समझ न सकी और उसे प्राकृत हिरनी रूप को सत्य समझ भागी ... हिरण के पीछे । जब वह वहाँ भागी तो प्रीति ने अपना लक्ष्य शयमसुन्दर नहीँ छोड़ा ,  बाह्य रूप से हिरण हिरणी का मिलन आंतरिक प्रीति और प्रियतम का ही मिलन है ... परन्तु हिरणी जब देह को खिलौना समझे तब वास्तविक इच्छा यानी श्यामा प्रकट होगी और वह यहाँ वहाँ नहीँ श्यामसुन्दर के लिये खेल खेलेंगी ...
मूल में हम प्रेम से खिल रहे है ... चेतन प्राकृत नहीँ ... हमारी आत्मा के मूल में प्रेम है ।
वह स्वभाविक उनकी और ही जाएगा अगर जीव बाह्य सम्बन्ध को भूल , वास्तविक श्री हरि को सम्बन्ध स्वीकार कर लें । वह उनके अनुरूप उनके सुख हेतु प्रकट हुई है ... और वास्तविक प्रीति को कृष्ण का माधुर्य स्वभाविक खेंचता है यहाँ कृष्ण बहु जीवों के भोगी हो कर भी श्रीप्रिया रस से ही श्रीप्रिया के लिये स्मरण अवस्था में है ... वास्तव में द्वितीय पदार्थ का उन्हें स्पर्श ही नहीँ ... प्रीति के अतिरिक्त ...और वह प्रीति जीव की निज नहीँ है , वह तो नित्य और दिव्यतम अतिसहज है । जीव तो वस्त्र है प्रीति का ... वह ...श्रृंगार है , लीला है ...कुँज है... जहाँ प्रीति उनसे मिल सकें ... वह प्रीति उनकी राधा है और हम श्रीराधा सेवा-सेवक । प्रेम हेतु वह प्रकट होते है मूलतः वह प्रेम बहु हृदयों में मूल में विद्यमान प्रियतम का सुख रूप प्रीति यानि राधा है ।
प्रियाप्रियतम् अर्थात आत्मा के मूल बीज और उसकी मूल प्रकृति का मिलन किंचित मात्र हृदयों पर होता है ... जीव का बाह्य स्वरूप भंग ही नहीँ हो पाता । इससे व्याकुलित कृष्ण खेंचते है अपनी प्रीत को ... अब भोगी ... वासना में डूबा क्या जाने कि वास्तविक इच्छा अचाह से प्रकट होगी और अचाह ही उनके निज स्वरूप की मिलन भूमि श्रीवृन्दावन (ललितश्रीप्रिया हितविलास प्रकट जहाँ) है । श्यामसुंदर से मिलन उनकी ही प्रिया का सम्भव है ... हाँ कृपा से दोनों ही नित्यप्रकट है परन्तु भोग जगत में आसक्त जीव के खिलौने को सच मानने से मिलकर भी मिलन अनुभव नहीँ कर पाते (अनुभव की सेवा चाहिये , अनुभव ही देय है इस हेतु जो की भाव को श्रीयुगल अर्पण करने से होता है , भाव-अर्पण होने पर ही महाभाव विलास स्फुरित होता है) मंदिर में आंतरिक तृप्ति इसलिये होती है क्योंकि श्रीकृष्ण तृप्त होते है प्रीति के अति निकट आने पर , जीव की इच्छा शक्ति श्रीराधा है यह वह जब जाने जब वह अन्य इच्छा न करें और वह हमारी हर इच्छा को प्रीति जानते है क्योंकि मूल में वही तो है और वह प्रीति भी हर वस्तु पदार्थ में व्याप्त कृष्ण तत्व का स्पर्श करती है इसलिये नई वस्तु जीव को कुछ आनन्द देती है , वास्तव में जीव के हृदय की इच्छा प्रीति है और वह श्रीकृष्ण की वह सुख भावना है जिसे श्रीकृष्ण खेंचते है और जो श्रीकृष्णाकर्षणी है । बिना हरि इच्छा और प्रबल भगवत रस की प्यास के यह विषय जीव जीव रहते नहीँ समझ सकता । इच्छाओं से परे कोई अवस्था इसे जानती है । केवल सेवार्थ सम्बन्ध ही प्रेम का विलास प्रकट कर सकता है , तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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