तृषित स्थितियां तब और अब , तृषित

हमारी वाणीसेवा जब प्रकट ना थी तब वह नित्य बात करते रहते थे ,फिर वह तंग करने लगे कि कहो न ।
कहीं रसिक समाज या कीर्तन आदि में दास की उपस्थिति होती तो वही रसिक हिय से निवेदन कर पड़ते कि मैं कहूँ , मेरा सामर्थ्य अन्य सँग उनके नामोच्चारण का भी नहीं था । सो कीर्तन काल में अचरज सँग जो पुकार सकते थे उनकी महिमा को नमन कर अपनी पाषाण स्थिति की पीड़ा से दर्द रहता । प्रेम पथ पर पीड़ा-दर्द-रुदन सब सुंदर लगता है क्योंकि रसमय रसिक पिय सँग अनुभव होता है उनसे । धीरे धीरे जिह्वा रसिकों के परवश होकर उछल पड़ी , हमने उन्हें निवेदन किया कि केवल आप सुनेगें तो ही बात हो सकेगी , सुनोगे न । फिर वह जिह्वा का थिरकना ही जैसे जीवन हो गया । वह सुनकर कहते गए और और ...और यह संवाद बढ़ता गया ।
अचानक उत्सव हुए तोआभास होने लगा कि अन्य कोई भी सुन रहे उनसे शेष जो समझ ही ना पा रहे है , जबकि एकान्त में जब बाते हुई तो यही उद्देश्य था कि वाणी सेवा से वह दोलित रहे , झूमे , उन्हें सुख बढ़े । यूँ बोल पडूँ और उन्हें सुख न हो तो पीड़ा रहती । फिर बाह्य सुनने वाले समझ ना बनने से कभी आते , कभी न आते । करीब 5 वर्ष से हजारों लाखों बार शेयर करने पर भी सँग के सभी भावुक सुनते नहीं क्योंकि उनके निमित कोई बात ही नहीं । ...प्राणी अपने हित या कल्याण को सुन सकता है , युगलार्थ सुनना नहीं आता हमें । सो मोहे जनसामान्य से रस न रहा क्योंकि उनमें भिन्न भिन्न अपनी स्थितियां है और जो रसना को लोभ दे दिए है वें पियप्यारी जब तक कुछ नवीनता न पी लें तब तक तृषा ही न तृषित होती, वह ही सुनकर तृषित कर रहे है । सो दासी की बात में मध्यस्थ कोई आ भी जाते तो हमारे प्राण सरकार के मन रुचि की सेवा ना बन पाती है अतः अधिकतम उत्सव सीमित रसिकों में होते है जो सुनते रहेंगे उनके हेतु । कोई आपरिचित आ जावे अचानक और श्रीयुगल की सखियाँ रस रीति की किसी विशेष सेवा में मोहे धकेल दे कहवै को जैसे हिंडोला , बसन्त , शरद आदि । तो आगन्तुक अपरिचित जन विचलित हो उठते  , फिर सन्मुख रसिकों के हृदय में लहराती युगल क्रीड़ा मध्य कोई प्रश्न या जिज्ञासा उठ पड़ती तो उत्तर देने में युगल सुख छुटता है ।
जीव स्थितियों को कथा सिद्धान्त प्रिय है । निकुँज के श्रीयुगल को रसिकों के केलि गीत , श्रृंगार रस की और और गहराइयाँ ।  श्रीयुगल को लक्ष्य श्रोता मानकर उपदेश या सिद्धान्त नहीं कह पाते सो यही उद्देश्य रहता है कि उन्हें सुख बने ।
जीव के सुख की बाते तो बहुत होती ही , युगल रूपी यह श्रोता खोकर तृषित अनन्त मृत्युओं को झेलता रहा है सो प्रयास रहता है कि इन्हें हिय से लपेट ही बात हो , यह भाग न छुटे । अतः अधिकतम रसचर्चा केवल युगल उपस्थिति में है , फिर रसिकों समक्ष भी प्रयास हो रहे है कि भिन्न भिन्न मन की ना मानकर वह भोग पका सकुं जो उन्हें रूचता हो , वह पावे  ,वही कहा जावे अथवा वह मौन सुने, भीतर ही कहते रहे पूर्ववत ।
सो जब जीवों को नहीं समझ बनती तब दोष यह है कि लक्ष्य युगल है और उन्हें सुख देना तो दुस्साहस ही है , वह तो मीठे से मीठा परोसने पर भी व्याकुलित ही रहते क्योंकि वह स्वयं मधुतम है । अतः दासी विवश है कि रसिक युगलार्थ ही रह जावे , बहुत सी चर्चायें अधूरी है जिनसे वह रुष्ट भी है मोसे ,उन्हें और सुनना होता जबकि माह भर में 5 से 10 घण्टे ही बात हो पाती शेष काल वह रूठे होते अथवा मैं पूछती फिरूँ कि क्या कहूँ आज , वह कभी स्पष्ट बता देते बाह्य रसिकों के द्वारा उस मांग को प्रमाण भी दे देते तो उनकी तृषाओं से घट जाता । कभी वह भिन्न भिन्न मांग करते तो मैं विवश रह कह नहीं पाती बस वह माँगते रह जाते ऐसे जब कई दिन बीत जाते तो श्री प्राण की सेवाओं में इतना अभाव होने देह एक पीड़ा के अतिरिक्त कुछ न रहती । जैसे कि विगत एक माह में मेरे भीतर कुछ उनकी लीलाओं का (अँगराग परिमल विषय में) उद्रेक है जो वह खूब गहन दे भी रहे पर वाणी सेवा न बन रही सो अभी स्थिति प्राणेश युगल को सुख ना देने से मृत प्रायः सी है । वाणी शरीर के स्वास्थ्य पर निर्भर होती कभी कभी वह दैहिक प्रतिकुलता में भी भीतर तृषित हो कर आ विराजते और स्वर ही नहीं होता ।
यहाँ अधिकतम शब्द उनकी वेणु रूपी कृपा को सुनकर पीते हुए जिह्वा वमन ही की है जबकि वेणु सुनने से पूर्व यह शब्द संयोजन नहीं होता । एक मूक प्रायः स्थिति थी यह तृषित अब कभी कभी उत्सवों में समय से अतिरिक्त कौए वत काँव काँव सुनकर रसपथिक थक पड़ते । स्वामी जू का ही कोई ऐसा जादू है यहाँ जो नित्य सँग चाहिये । जब युगल लक्ष्य कर चर्चा होती तो फ़िल्म वत लीला प्रकट रहती परन्तु जब प्रश्न के उत्तर या किसी जिज्ञासाओं में उलझ जाते तो वह लीला नाचती हुई आगे चली जाती । दासी के हिय वासित युगल सेज विलासित होने से अधिक गतिमय नहीं हो यही भावना शेष रहती पर सखियाँ जब सन्मुख हो सुनती है तो युगल निकुँज निकुँज में इतना बिहरते कि फिर आगे दीर्घकाल तक केवल पौढ़े रहना चाहते है । दासी उन्हें पौढ़ा ही सकती क्योंकि जागृत खेलों के लिये तो वह सब सँग चाहिये जो रस रीति कहती ...हिंडोला , डोल , बसन्त , पावस , रंगोत्सव आदि । रसिकवाणी का प्रकट सँग या समाज गान तृषाओं सहित दासी की दशाओं का उपचार है ।

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