हियोत्सव , तृषित
*हियोत्सव*
हिय का सँग छूट नहीं सकता प्राण का सँग सम्भवतः छुटे भी तो क्योंकि हिय वह जीवनराग है जो प्राणाहुत होकर ही प्रस्फुटित होगा हिय और हिय जो देगा वह रस भी नहीं छूट सकता । और इसी हियोत्सव तक लाने के कौतुक श्रीहरि रच सकते है ...हृदय की ओर । रसपथ का बाह्य स्वरूप हृदय में सिद्ध होने के लिये ही है हाँ हृदय में रससिद्धि उपरांत ही बाह्य रस सँग से भक्त के सेवामय दिव्य चरित प्रकट होते है । वस्तु के अति संयोग से वह भोग्य तो रहती है उसका हृदय से सम्बन्ध नहीं बन पाता है , अगर भोक्ता एक पृथकता है तो । हृदय में रस सिद्ध होने पर इन सभी इंद्रियों के रस को हृदय(हिय) सहज लें सकता है और तब इन्द्रियाँ भी हृदय पराधीन ही रहकर रसमय होती है । प्रेम में इंद्रियों का दिव्य स्वरूप भी हृदयसिद्धि से ही सिद्ध है । इंद्रियों का उपभोग भी इसी तरह रखना होता है कि वह निजतम रस को नित्य हृदयगत रख सकें , अर्थात् प्रियतम को निहार कर नयन हृदय में भर दे । फिर नयन कोई भी वस्तु निहारें ...हृदय तो प्रियतम को ही देखता रहे । हृदय ही प्रियतम का वास है क्योंकि वें रस है और भाव(हिय) में वास करते है । इन्द्रिय की रस में सेवा सिद्धियों हेतु रूप दर्शन अनिवार्य है जब वें आचार्य कृपा से वें रूप पीने ही पीने हो , इन्द्रिय भोग की अपेक्षा सेवा दे रही हो ...यह रूप-पान हृदयगत भी हो सकता ही है ...नामधारी को श्रीनाम में भी प्रति श्रीनाम दर्शन नहीं है तो श्रीनाम अभी प्रकट ही नहीं है । श्रीनाम से दर्शन हो तो हियोत्सव उठ गया है परन्तु यहाँ इन्द्रिय से जिन्हें उन्हीं नामी के दर्शन गोचर होते है वह भी समान ही रस ले रहे है बस भजनांदित स्थिति में हृदय प्रमुखता में है और इन्द्रिय सुखों सँग हृदय गौण होकर रस ले रहा है और हृदय की अगुवानी में जब शेष देह-जीवन आदि सब पराधीन हो तब ही भक्ति है , हृदय का गौण रहना भक्ति का ही गोपन है । हृदय का यह गौण रसपान जब अनुभव होने लगता है तब स्वयं में प्रीति लक्षण अनुभव पड़ते है , पर प्रेमी ने हृदय ही तो दिया होता है सो हृदय में रस ले कौन रहा है .. यह चिंतन होना चाहिये ..हृदय अपनी सम्पति है ही नहीं । वें प्रियतम की धरोहर है । सो ...
प्राणी हृदय में जब तक स्वयं को पृथक भोग देने हेतु अहंकार रूपी नीरस मैं होकर ही विराजमान है , तब तक हृदय से वह भोक्ता बना हुआ है और वह स्थिति प्राणी - जीव - साधक जो भी है वह रस नहीं है , परिस्थितियों और लीलाओं में कर्तत्व का भेद है ...लीला तो लीलाधर का सहज उन्माद है जबकि परिस्थितियों के भोक्ता हम है । सो भीतर मैं रूपी रस भोक्ता बाह्य किसी भी रस रूपी प्रियतम (प्रिय भोग) का सँग चाह सकता है । रस रूपी इन्द्रिय गोचर होते प्रियतम हृदय में विराजमान होते ही जावेंगे तो वें रसिक ही रस भोग पीवेंगे और चूंकि वें तो नित्यरसिक है सो नित्य रस में ही होगें परन्तु सहज शरणागत ही रस दे रहा होता है वरण रस लेना ही रसिक सँग का कारण है , सहज शरणागत प्रेमी रस-रसिक सेवाओं में हर्षित है अर्थात् जब तक मेरे नेत्र प्रियतम की वस्तु ना होगें तब तक यह मुझे दृश्य भोग तो देगें परन्तु उनकी वस्तु होकर उनका ही सुख खोजेंगे और उनके नयनों में रस नित्य है सो यही प्रत्याभास शरणागत में सेवार्थ घटेगा । श्रवण पुट भी जब तक मधुरता को सुनकर भोग ले रहे होंगे तब तक वे मधुरता के श्रवण से प्रियतम को सुख नहीं दे सकते । निज प्रियतम को सुख हो इस हेतु उनका हृदय में भोक्ता होकर विराजमान होना अति अनिवार्य ही है ताकि सर्वेन्द्रिय के सँग असंग से जो भी प्राप्त हो वह हृदयनिधि को अपना रस लगें । अगर नयन खुल कर रस नहीं दे सकते तो मुँद लेने पर देंगे और मुँद लेने पर नहीं दे सकते तो खुल कर देगें । प्रेमी को अपने हृदय में प्रियतम का हृदय ही धारण रखना चाहिए , अब प्रियतम हेतु प्रेमी के पास कोई रस ही ना हो तो वह असमर्थ होकर स्वयं की सत्ता से छूटकर हृदयनिधि की हृदय में अभावों से गोप्य प्रीति भावित मधुर सेवा कर सकेगा ...और हृदयनिधि को हृदय सेवाओं से ही उत्स है , सेवाओं में हियोत्सव जितना गहन होगा वह उतना ही उनका पान करेगें और बाह्य हृदय से शेष लेन-देन में उनकी कोई रूचि कभी नहीं होगी अर्थात् श्रीप्रियतम को कोई रस निवेदन हो पर उसमें हृदय सँग (भाव) ही नही हो तब तक वें रस नहीं लें पाते । वें भावुक रसिक है जो हृदय के देने पर ही लेते है और दिया कुछ जाता हो हृदय कुछ छिपा रहा हो तो प्रेमी के यहाँ हिय के राग की चोरी भी कर सकते है । क्योंकि निज प्रेमी का हिय का राग या भाव उन्हें लेना ही लेना है । भावुक जन अपने प्रेमास्पद के दर्शन छूटने से विचलित रहते है जबकि शेष विश्व वही हो , बस प्रेमास्पद न सुलभ हो तो नयनों को दृष्टि रस नहीं मिलता क्योंकि हृदय ने केवल प्रियतम को ही रस माना हुआ है सो समस्त से रस नहीं रहा है अर्थात् हृदय के रसमय-आनन्दमय होने पर ही इंद्रियों का भोग सिद्ध है परन्तु यहाँ मिली हुई इस देह या भाव सामग्रियों से स्वयं को नहीं अपितु प्रियतम को ही रस पुष्टि देनी है । एक यही भावुकों से जीवन भर भेद होता है कि वें रस सेवक होने की अपेक्षा रस भोगी बने रहते है जबकि रससेवाओं से सहज नित्य दासत्व है , हृदय में प्रेमास्पद की अनुपस्थिति से ही वियोग (विप्रलम्भ) सृष्ट होता है यहाँ अहम् की उपस्थिति यह नहीं समझ पाती कि हृदय में प्रेमास्पद भजन-नाम या रति द्वारा नित्य ही अनुभव हो सकते है और हृदय ही प्रेमास्पद को देकर शरणागत होने पर मिलन सिद्ध रहता है , शरण्य प्रेमी पियवर में कदापि शरणागत का त्याग की कल्पना का भाव भी प्रकट नहीं होता । अर्थात् नित्य-उत्सवों के पथिक का अपने हृदय पर पृथक सुखों का अधिकार ना होकर रसिक दूल्हा-दुल्हिनी का उत्स होना चाहिए और नवेली जोरी तनिक निजतम निभृत सुखों हेतु परिजन से पट भी रखें तो परिजनों के हृदय में उनके सहज उत्स का उत्स ही बधाईवत मंगलगान में निवेदन होना चाहिए । माता-पिता जब हृदय से सन्तति का सँग करने लगें तब ही उन्हें सन्तति के परिणय में सुख वर्द्धन होगा क्योंकि वर-वधु को जो सहज सुख हो रहा होगा ...
लोक में दिव्य प्रेम को बड़े ही सिद्ध प्रेममय प्रयोजनों सँग कल्पों से मनाते रहे हैं , लोकार्थ प्रीति बड़ी सहज द्रवित होती है जबकि यही प्रीति जब श्रीप्राणवल्लभ को निवेदित होती है तो सेवक एक अभ्यासी भर रह जाता है । सेवक ने अपनी हृदयधरा को नित्य उत्सवों हेतु दे ही दिया है बिन मोल पियप्यारी को , और पियप्यारी श्रीसरकार को निजतम ऐसे सुख हो जिनमें कोई बाधाएँ ना हो , मैं भी नहीं ...केवल वें और उनके निजतम सरस् सुखों की भीनी बौछारें । पर हमें तो रस चाहिए ही चाहिए , अगर जिनसे रस चाहिए वें रसिली रसिक जोरी अगर स्वयं ही हिय आरूढ़ है तो उन्हें निकुँज रस चाहिए । निकुँज हिय में है तो उसे झुमाने-खिलावन हेत सखी चाहिए और सखी हिय में है तो श्रीयुगल का नित्य सघन सुख विलास होना ही चाहिए । और यह सभी हृदय में है तो हियोत्सव उठता रहना चाहिए । हियोत्सव का भीतरी मयुरवत प्रकम्पन बाह्य जीवन में भी सघन घनिमा भर सकता है । युगल तृषित । श्रीवृन्दावन ।
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