भाव भजन मर्म , तृषित
*कुँज (भाव समूह) जब सँग सँग समभाव में भीगा होता है तब वह* उत्सव *है (उत्सव सामूहिक भजन है)*
युगल तृषित
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*भाव प्रेम पथ पर सर्व में समत्व (सहचरी) दर्शन हेतु प्रथम सर्व में ज्येष्ठ दर्शन / गुरु दर्शन / इष्ट दर्शन होना चाहिए*
*(बराबर देखने के लिये लोलुप्त को सभी बड़े (विभु) दिव्य दिखते है , दैन्य जब प्रकट हो तब दिव्यतम ही साहचर्य मिल रहा होता है क्योंकि स्वयं से दिव्य में सहचरी बोध मिलने पर भी अभिव्यक्त रखना भी एक भजन हो रहा होता है )*
युगल तृषित
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*महाभाव प्राप्त स्थिति ही भाव राज्य की रस यात्रा में है ।*
*जिसे महाभाव दर्शन होता हो , उसे शेष मात्र अभाव दर्शनानुभव में नहीं आता । अभाव का द्रष्टा महाभाव में भी अभाव ही देख रहा होता है , अभाव दर्शन भावपथ पर बाधा है , जिसका अपना अभाव नित्य बढ़ रहा हो वह सर्वत्र प्रभाव अर्थात प्रेमास्पद का प्रेम (कृपा) देख रहा होता है । अभाव दर्शन से छूटने का मार्ग है अपना और केवल अपना अभाव शेष केवल केवल प्रभाव अनुभव में रहना ।*
युगल तृषित
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*केवल प्रियाप्रियतम या उनकी अप्राकृत प्रेमी ही सहज सँग में नित्य रह सकते है , शेष सभी सँग भंग होने को ही होते है और हमें भंग होने वाले सँग में रूचि नहीं होती है ।*
*नयनों में अभाव प्रकट होने पर सँग भंग होता है और महाभाव होने पर वह मधुरोतर मधुर होता जाता है ।*
*वास्तविक प्रेमी रसिक और श्रीश्यामाश्याम का सँग इसलिये ही नित्य वर्द्धित सुख देता है क्योंकि उन नयनों में महाभाव निहारने के सामर्थ्य से हिय में छिपे स्वभाव की सुगन्ध आने लगती है । फूल को भृमर सँग इसलिये प्रिय है क्योंकि वह उसके भीतर के मधु को छू सकता है क्योंकि उसे केवल मधु छुना होता है । माधुर्य पथिक वह है जो कांटा भी छुवे तो फूल स्पर्शवत ही सँग में हो , कीचड़ में भी छिपे सौंदर्य को देख सकें अर्थात मल में कमल । मल या हम मलिन भी ऐसा सँग खोज रहे है जो भीतर श्रीयुगलपद्म को देख रहा हो ।* युगल तृषित
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*स्पष्ट सँग का अर्थ है सत्व अर्थात दर्पण । नीले को नीला दिखाना ।*
*परन्तु महाभावित सँग तत्सुख सँग है अर्थात विशुद्ध सत्व अर्थात नीले को अगर पीला दिखाना हो तो वह दिखाना ...हिय विलास दर्पण । प्रेमास्पद हियरस श्रृंगार में नित्य ।*
*स्पष्ट दर्पण का यश गाना सरल है परन्तु प्रेमास्पद हियरस श्रृंगार भरित यह महाभाव दर्पण केवल महाभावुक को अनुभव हो सकता है । शेष के लिये यह साधारण स्थिति होगी क्योंकि वह जीवन किस ओर की मधुता जी रहा यह केवल प्रेमी समझ सकता है , शेष लोक अपने ही चेतन की नही सुन पाते तो प्रेमास्पद के गीत पर नाचता जीवन समझना कठिन है । जहां भी ऐसा प्रकट है वह लीला ही कथ्य होगी ।* युगल तृषित ।
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*श्रद्धा पूर्ण भरी रह्वे । आचार्य श्रीगुरु कृपा कर अगर एक पाषाण प्रदान कर दें तो वह ही ईश्वर मान्य हो । वह जो भी भजनीय अमृत दें वह जीवन भर पर्याप्त है जैसे एक सुई से सभी वस्त्र सिले जा सकते है । या एक कलम से अद्भुत से अद्भुत अवसर छुये जा सकते है वैसे ही श्रीगुरू-आचार्य प्रदत एक अर्द्धाक्षर भी कल्याण की सुधा है । पथिक निज गुरू द्वारा प्रदत्त करुणा झारी को लघु मानकर फिर कुछ और पाने निकल पड़ते है । क्या वह पथिक उस मन्त्र या भावना के शिखर को छूकर आगे बढ़ते अथवा अपने भजन अभाव को ना समझ कर जीवन भर नए मन्त्र ही लेने से रस मिलेगा ऐसा मानते है । श्रद्धा अपना निज-विषय है उसे व्यसनी से सीखिये , भारत में हुक्का-चिलम पीने वाले दिव्य-जन उस हुक्के के प्रति भी भगवदीय भाव रखते है । श्रद्धा जहाँ जितनी प्रबल होगी अपने को ही रस में भिगोए रखेगी । श्री रसिक गुरू कृपा वत कोई भी शब्द समूह (वाणी पद) मनन हेतु दें वें ही शास्त्र मानिए और उन्हें प्रयास कर नित्य जीवनस्थ रखिये । आचार्य द्वारा प्रदत्त प्राथमिक रस से भी विशिष्ट रसिली स्थितियों में रहा जा सकता है ।* युगल तृषित ।
*केवल अपने इष्ट से नहीं आचार्य रस रीति के मधुर रस सुख से भेंट होनी है पथिक की , अपने भीतर इन्हीं स्वरूप-स्वभाव के लिए इतनी मधुरता नहीं होती जितनी रसरीति प्रीति के श्रृंगारों सँग पथ अति सरस् मधुर नवनीत पद्म वत वपु माधुरी हृदय में सँग हो उठती है*
*सो शरण में आध्यात्मिक सुख भी शरण में हो और सहज प्राप्त प्रति हृदय प्राणधन का स्पंदन श्रीआचार्य कृपा के वन्दन में भीगा ही हो*
*जिसने सत्य में रसिक स्रोतों से रसपान किया है वह तो नदी के सूखने पर आहुत मीनवत सँग है अर्थात् रस पीकर रस स्रोत का त्याग असम्भव है*
*त्याग वही सुन्दर है जिसे विधाता ने रचा है , मन ने नहीं*
*विधाता की रचना में भीगे प्राणी रस भी अपार होकर मिलता है तो विधि त्याग भी प्राकृत लेकर तृप्त नही होती है*
*चाटु-चाटुकारी को भूल लोक की निःस्वार्थ सेवा हो और हृदय को पिघला हुआ गहन शर्बत वत रसमय रख अपने आराध्य की मधुतम सेवाओं का उत्स भीतर नित्य तृषित हो*
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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