शुभा तृषित । तृषित
तुम शुभा हो तो , मैं तृषित ।
अब संकेत किया है कि यह खग यहाँ नहीं है , समझ नहीं सकता कोई । केवल काक के निकट थोड़ी सहजता है मेरी । भीतर काक तृषित है वह वेणु की विवशता में रो नहीं पाता केवल कोकिला की तृषाओं से केलि को प्यारी श्रृंगारों की गूंज से उड़ेल सकता । तभी तो मोहे अचरज रहवे कि भीतर मोहे कोई खग वल्लरी सखी न छोड़ सके और यहाँ आता नहीं कोई क्योंकि यहाँ मैं हूँ ही नहीं ..मर गई न कई प्रजातियां ,उनमे ही कोई एक ...तृषित । सो खग मेरे प्राण । फूल है तृषित । वल्लरी भी । सेवा भी । सखी भी । कुँज भी । और रस पीकर अतृप्त पियप्यारी भी तृषित सो तृप्ति देने पर भी प्रसादी मिलती और तृषा ही । तुम साँझ प्रिया स्कंध आरूढ़ हो प्रवेश करो खगे होकर तो प्रियतम के रोम रोम से उड़ते मेरे पँख कह देते कि प्रिया सँग प्रवेश हुआ कहाँ सँग नित्य तो सँग लालसा की तृषा सघन नित्य ।
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