श्री - माधुर्या और उदार सेवाओं का सौभाग्य , तृषित
*श्री-माधुर्या और उदार सेवाओं का सौभाग्य*
श्री का अर्थ होता है श्रेय (सेवा) अनन्त हृदय निधियों की श्री (सेवाओं) से विभूषित माधुर्या श्रीप्रिया है । श्री वह वैभव है जिसे सेवार्थ प्रकट कर दिया गया है । निधि वह गुप्त सार मधुता भरि सम्पति है जो व्यय या प्रकट ना होकर सर्वदा निधि रह जाती है अर्थात् मधुरता को व्यय करने पर भी वह संचित होकर भीतर हृदय रूपी सन्दूक (तिजोरी) में बढ़ती ही जाती है , वें माधुर्या जिनकी अनन्त सम्पन्न सेविकाएं सेवामय है वें श्रीप्रिया प्रेमामृतसुधा निधि है । युगल तृषित । यहाँ भगवती ऐश्वर्या की माधुर्य हेतु उपाधि हुई है , वह स्वयं माधुर्य पिपासा में ना भर पाती तो कदाचित् कोई भी ऐश्वर्य-मुखी ऐश्वर्य को माधुर्या में समर्पित नहीं कर पाता । ऐश्वर्य को देना अति सरल नहीं है यहाँ उदाहरण देखिये कि कन्या को श्रीप्रिया माना जावें तो समस्त सम्पति उसी की निधि सेवा है सो उसे सर्वस्व देने की सहज वेदना उठनी ही चाहिए परन्तु कन्या को अर्जित सर्वस्व देना होता है क्योंकि जिसे भी कन्या सुलभ होती है वहाँ सिद्ध होता ही है कि वह वैभव केवल उन्हीं श्रीकिशोरी कृपा से है सो उन्हें निवेदन होना ही चाहिये परन्तु सुकन्या रत्न प्राप्त वह सिन्धु या हिमालय रूपी पिता या उसका समाज जन्म से पूर्व ही वैभव छूटने से पीड़ित होकर गर्भित कन्या का ही वध कर देता है सो यह कहना आसान है कि लक्ष्मी का प्रवेश नहीं विपिन में परन्तु प्राकृत माया हेतु भर कोई वृषभानु सुख को जुटाने का साहस नहीं कर पाता है , मातृपित सहित निकट का समाज प्रति सुकोमल कन्या में प्रकट प्रीति को नमन कर उन्हें श्रीप्रिया मान सकें तो यात्रा होती है सर्वस्व सेवाओं सहित निकुँज सुख देने की । और माया तो श्रीलक्ष्मी जब ही हो पाती है जब उन्हें श्रीनारायण (सत्य रूपी धर्म) के निमित् ही स्पर्श किया जाता हो , जो प्राणी स्वार्थ हेतु धन प्रयोग करते वह धन भगवती-लक्ष्मी नहीं है वह तो माया है क्योंकि भगवती श्रीलक्ष्मी का वास श्रीनारायण सुख सेवाओं में निहित है । समुद्र ने श्रीहरि को श्रीलक्ष्मी रूपी पुत्री ही नहीं अपितु क्षीर (रस) सागर में निभृत वास भी दे दिया है । यह क्षीरसुधा अप्राकृत ही दृश्य निधि है समुद्र की , उसने अपनी क्षारित लहरों से ही सभी को हर्षित किया है परन्तु श्रीनारायण को वहाँ सहज निधि माधुरी किशोरी उसने दी है , क्योंकि मायावत दर्शन में समुद्र का जल और उसे स्पर्शित रेणु की कणिका भी क्षार(नमक) हो उठती है । वस्तूत: विशुद्ध नमक में जो नमी रूपी जो पंक (भीगी गीली रेणुका) है वह नवनीत सुधा सुलभ है । नमक का गुण खारापन नहीं है अपितु नमी देना है । वही नमी श्रीगौरस सार से प्रकट नवनीत में मधुवत प्राप्य रही है (वर्तमान नवनीत में भी क्षारियता है सो क्षमा यहाँ भी सहज मधु अनुभव भावों के संयोजन से अप्राकृत कृपा से घट सकता है ) । मधु अनुभव के लिये सभी शेष रसों से केवल मधुता पान आना चाहिये जैसा कि उसी खारे पंक से प्रकट पंकज पर बैठी मधुमक्खी सिद्ध कर देती है कि सागर रूपी इस जल ने मधुता को छुपाया ही था परन्तु पुष्पों का तो प्राकटय ही इस वांछा से होता है कि वें मधुता को छिपा ना सकेंगे क्योंकि इन्हीं पंकज से कोमल पुष्पों पर मधु पुलक कर श्रीप्रिया होकर प्रकट हुआ है । सो सौभाग्य से अभी फूलों का कन्द मीठा हो सकता है , प्रीति के अदृश्य होन से श्री विधाता की सृष्टि ने रसों को गोपन किया है क्योंकि वें सभी रस केवल प्रीति प्रियतम को निवेदन कर सकती है । प्रीति भरित हृदय एक-एक निर्मालित कणिका (महाप्रसाद) से अक्षय रस पी सकता है । ज्यों सदेह ही श्रीकृष्ण संयोजन हो जाता हो । प्रीति भाव जीवन को प्रबल कर अप्रकट सरस विलास को प्रकट कर सकती है और प्रीति नित्य निकुँज क्षेत्र में वास करती है सो प्रीति की अनन्त सौभाग्यवती दासी-किंकरी-सहचरियाँ भी प्रीति के संयोजनों के प्रकट होने से निकुँज में नित्य रहती है , प्रीति के नयनों में जब कीच-सूकर वन्दनीय है तो प्रीति-मञ्जरी किंकरियों के नयनों में माधुर्य के बिन्दु बिन्दु को इष्ट मानती दास्यातुर भगवती श्रीलक्ष्मी के प्रति सखिवत आह्लाद उठ सकता है , जो नयन ...हे पथिक तेरा-मेरा दिव्य स्वागत जुटा रहे है , वें नयन ईश्वरीय उपाधियों को नमन ही करते है और कहते है कि ..हे श्री , श्रेयता (सेवा) हेतु साहस देना । कहीं प्रियार्थ हृदय कृपण न हो उठे । और आज निज-कन्या के स्वप्न के प्रति भी कृपणता ने विभत्स रच दिया है सो ऐश्वर्या उपकार करेगी तभी दिया जा सकेगा वरण पूछिये किसी पिता से आज कि कन्या हेतु उत्स हृदय में सहज उठ हाथ खुल गए अथवा कोई भेद हृदय में रहा , देना सहज धर्म इतनी निजता पर भी कितना कठिन होता है । वह साहस कौन देगा वही महाभाव्या *श्री* । शेष युगलार्थ गहन मनन हेतु निधि की निधि किशोरी जू प्ले लिस्ट सुनियेगा । और अँगराग परिमल भावरस को सुनकर चूर्ण लेपन आदि माधुरियों में निहित गोप्य उत्स आप समेट सकते है । पठन आपकी तृषाओं से सम्भव है और तृषित श्रवण श्रीप्रिया निधि है सो वह ही इस हेतु कृपा किन्हीं कोक-कला भरित निज खगों पर करेगी , वह सौभाग्य रच देगी तो स्पर्श बनेगा ध्वनिभूत । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । कन्या में लक्ष्मी या श्री या गौरी मान्यता पर किशोर वर में भी श्रीहरि - श्रीराम -शिव आदि दिव्य इष्ट चरणों के प्रति अनुग्रह होना चाहिए दान के सन्मुख भगवदीय क्रीड़ा होती है त्याग ।
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