वास्तविक दीन - दैन्यता , तृषित
*दैन्यता*
मन की गति यौं चाहियै,
भयौ रहै दिन दीन ।
रसिकनि की पदरज तरैं,
लुठत सदा ह्वै लीन ।।
दैन्यता , भगवत् प्राप्ति के लिये कितना महत्व रखती है यह हम सब जानते है , परन्तु वास्तविक दीनता से सब बचना भी चाहते है ।
बहुत लोग वैभव मैं बैठ कहते , जी ...मो सम दीन कौन ... !! दैन्यता अगर ईश्वर के विधान से किसी को स्वतः मिलें तो उसमें बनावट नहीँ होगी ।
दीनता होगी किसमें , जिसके पास कुछ न हो । जो मान लें कि अपना कोई साधन है ही नहीं । रिक्तता को स्वीकार करलें ।
जो प्राप्ति की भावना करता हो वह दीन नही हो सकेगा और दीन हुए बिना कृपा दर्शन सम्भव भी नहीं । प्राप्ति हेतु दीनता असम्भव है ...कृपावर्षा में भीगकर और सरसताओं सँग दीनता नित्यअभाव स्थिति है । और भक्ति रूपी महाभाव सिद्ध होता है अपने अभाव की महिमा के बढने पर । भगवत-अनुभव बढने पर अपनी समर्थता का भी होना असम्भव है । अपनी असमर्थता की सिद्धि ही दीनता है जो नित्य समर्थ श्रीहरि की करुणा सँग रसिली होती जाती है ।
परन्तु असमर्थ होकर भी धरती की सारी उछलकूद समर्थ होने हेतु गतिमान है ...निर्धनता (दीनता) का विस्तार नहीं ...और और धनाढ्य होने की व्यापारिक वृति भीतर बढने से सहज दीन स्थिति का दर्शन अथवा दीनता का आदर भी नही होता है । भीतर दायरों की खाई को मिटाना अनिवार्य ही है । हरिदासता भरे भक्ति पथ पर सेवक की सेवा और दीन की दीनता का आदर होना चाहिये ।
मेरे जीवन में दो तरह के दीन आते एक चमचमाते जगमगाते दीन । एक वास्तविक दीन , वास्तविक दीन तो आध्यत्म का चलता-फिरता विद्यालय है । वह दीन जिसे साफ़ सुथरे घरों में प्रवेश न हो । जिसे याचना पर भी जगत देखता भर ना हो । क्योंकि जिस दीन की दीनता पर जगत रीझ जावें तो वह दैन्य कैसे श्री हरि तक शेष होगा (जगत और श्रीहरि में एक पक्ष की ओर ही गति सम्भव है)। समस्त जगत अपनी नजर फिरा लें , याचनाएं निरस्त हो तब वह निश्चित दीन होगा ...जो अपनी दीनता को मिटाने हेतु चलें वह दैन्यता की महिमा को समझ नही पाता । वह दैन्य ही परम् रस को प्राप्त कर सकता है । वस्तुतः दीन को सहज श्रीहरि प्राप्ति है उसे केवल दीनता को सघनोत्तर सघन सजाना है ।
श्रीहरि विभु है माधुर्य या प्रेम में भी वह ही रससमुद्र है उनका सम्बन्ध अतिलघु से ही सम्भव हो सकेगा । विभुता अनन्त न्यूनताओं का मिश्रण भी और न्यूनता से सर्वदा पृथक् भी अपितु वह ही अति न्यूनतम के भी प्राणाधार है [लव-कुश {लव न्यूनतम चेतन । कुश न्यूनतम जड़} एक ही श्रीराम प्राक्ट्यकर्ता ]
आज ...आंतरिक दैन्य और बाह्य वैभव यह मिश्रण हमें चाहिये । बाह्य दैन्य और आंतरिक रस-वैभव(निकुँज) क्यों नहीँ ?
हम वास्तविक दीन देखना भी नहीं चाहते और जगत में अभिनयवत अति दीन बने फिरते ।
विचारणीय विषय है , हम जगत की भक्ति करते है या श्री हरि की ।
क्योंकि श्री हरि समक्ष छद्म-आवरण कोई काम नहीं करेगें । और छद्म तथा आवरण का त्याग हमसे होते भी नही होता । वास्तविक साधक के जीवन में समस्त आवरण त्याग की लीला अवश्य घटती है, (चीर हरण लीला) {आवरण भंग लीला} ।
तब समस्त जो "मेरा" माना गया वह छुट जाता है और वास्तविक दैन्य प्रकट होता है ।
दीनता का संग अभाव से है , रिक्तता से । पूर्णता का अभिलाषी दैन्यता का विरोधी है , वास्तविक पूर्णता पात्र की रिक्तता पर स्वतः प्रकट होती है । और उस प्रकट पूर्णता में भी दैन्य रूपी रिक्तता गहराती रहती है । क्योंकि वास्तविक पूर्णता में पात्र लघु होता है , यह लघुता दैन्य वर्धक ।
गिरती बारिश को समेटने की कोशिशों में ...
वह चिड़िया चोंच ऊँची कर भिगती रही ... तृषित ।
वर्षित-कृपा को समेटना ही दैन्य भरे जीवन का रसपान है ।
Comments
Post a Comment