मनहर का चुराया मन , तृषित

*मनहर का चुराया मन*

सर्वस्व छुट जाता उन मनोहर की एक झाँकी से , शेष रहती एक आस ... दर्शन व्याकुलता से भरे नेत्रों की प्यास बन । एक बार , एक झाँकी हो जाती तो सब सहज होता । फिर बाहरी पीड़ा , बाहरी सम्बन्धों का भय नहीँ होता । मन दौड़ता उन्हें खोजता हुआ । और वह गोपाल बन कभी वन में अपने गो समूह संग कहीं संकेत देते तो कभी कही ।
यह सब इंद्रिया उन के हेतु होती और वह ही सबका ख्याल करते , गोपाल बन । सम्पूर्ण रोम रोम व्याकुल होता उनके एक दर्शन को निहारने हेतु । मन जो कभी कहाँ तो कभी कहाँ भटकता है क्या रह पाता उस झाँकी बाद ,उस एक स्पर्श बाद , जो संकेत था । वह बाँसुरी , वह स्पर्श सब निमन्त्रण ही होता इस मन को । मन चंचल है यह स्वयं को अति मतवाला और अतृप्त घोषित कर भटकता है । पर श्याम एक बार अपनी चितवन की सौरभ इस पर छोड़ जाते तो क्या यह उनके लिये पागल हो अपने सम्पूर्ण भोग को स्वयं भुला हे कृष्ण , हे कृष्ण कह कर बावरां ना हो जाता । मन की सम्पूर्ण चंचलता धरि रह जाती , यह कही तृप्त नही होता परन्तु मनोहर की माधुरी इसे कैसे पागल ना करती , भूल जाता यह स्वयं के गुण-दोष कि  अन्य कोई द्वितीय वस्तु अब है जो मुझे इससे अधिक तृप्त कर सकेगी ।
फिर यह मन प्यासा होता , क्योंकि इसे फिर वह अमृत सुधा का अणु भर भी लोक में क्या चोदह भुवन में ना मिलता । एक दर्शन से उनके भोग - मोक्ष लालसा सब ढह जाती , एक झाँकी से । शेष रहती तो पिपासा कि किस तरह वह पुनः प्रकट हो , अब मन उन्हें ना पाकर स्वयं को मछली की तरह तड़पता स्वयं देखता । जो भोग ,जो जगत इस मन ने जुटाया अब इसे सब नर्क से भी गहरी पीड़ा देता ।
मन को तब कुछ चाहिये होता तो वह केवल वही घनश्याम । यह बावरां मन , जिसने भोग जगत में युगों तक उलझाये रखा यही मन अब सच्चे रूप सौंदर्य का दर्शन कर भूल जाता अपने पुराने विषय और पुराने संकल्प भी । मोहन की मधुरता से घायल मन देखता अब उसके ही पूर्व स्वप्न - संकल्प उसके मिलन पथ पर पर्वत बन खड़े हो गये । वो प्रति वस्तु जिसका उसने कभी भोग जीवन में कामना की या इच्छा की वह ही अब उसके सन्मुख आरही । और मन को तो चाहिये अपने प्रियवर का संग सो सब भोग सुख की अपेक्षा पीड़ा दायक होते जाते ।
एक नाम , एक आस , एक प्यास में सुलगता यह मन कही जीवन पाता तो उनके लीला , कथा , सत्संग में । अपने स्वामी के नाम रस में । और उन स्थितियों में मोहन का नाम उसे और व्याकुल करता जाता । जो जीवन वस्तु संग्रह में लगा था वही लोभ अब सच्चा लोभ जान अपने प्रियतम की निरन्तर रट लगाने लगता । परन्तु प्रियतम नाम की यह औषधि व्याकुलता को कम नही करती , अपितु प्रति नाम और गहरा करती जाती । आंतरिक रूप अपने प्राण को पुकार पुकार जब मन अधीर हो स्वयं को असहाय जान मृत घोषित करता , जी मृत यह मन कभी मरता तो नही , देह छुट जाती पर मन नहीँ छूटता सो चक्कर लगते रहते परन्तु प्रियतम की व्याकुल रूपी चिकित्सा मन की स्वयं की बनाई सत्ता को वास्तविकता का दर्शन कराती जाती ।
प्रियतम के नाम - लीला स्मरण में मछली सा तड़प कर मृत होता मन जब प्रियतम का कोई संकेत ना पा कर अपनी बनावट को त्याग कर मरने को होता तत्क्षण उसे सुनाई देती मनोहर की मनहर ध्वनि , जी जैसे श्याम सुंदर उसे पुकार रहे हो । वह लगभग समस्त आशाओं से ऊपर उठा प्यासा मन जैसे ही रस को अप्राप्त जान विलय करना चाहता पुनः उसे कुछ भनक मिलती , और वह उस मछली सा जी उठता जो जल से बाहर थी अब पुनः जल में । अपितु अब यह जल उसे और प्रिय हो गया व्याकुलता के प्रभाव से । मन सुन ना चाहता क्या उन्हीं ने पुकारा जी उन्ही ने यह पुकार तब सुनाई आई जब मन ने समस्त ध्वनियों से स्वयं को हटा लिया । किसी भी वस्तु में रस अनुभूति वास्तविक रस के प्रकट होने में बाधक है , जब मन मधुसूदन के अतिरिक्त किसी अन्य की सुनने को तैयार न हो तब यह अद्वितीय प्राप्ति उसे सम्भव है । फिर ... क्रमशः ... तृषित ।

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