उत्कट लालसा , तृषित

भगवत् दर्शन की उत्कट लालसा ऐसी हो जो सर्व विस्मृत कर दे । स्वरूप विस्मरण हो जावें जो कि असहज होता , विस्मरण की अवस्थाओं में भी किञ्चित् स्मरण रह जाता । सम्पूर्णता का त्याग को , बाह्य नहीँ आंतरिक रूप से । बाहर का त्याग आंतरिक अहम को विकसित करेगा , बाह्य त्याग और वेश आदि के लिये उचित समय हो ।   अगर जगत के बाह्य त्याग से भी जगत का सम्बन्ध आवश्यक रहें तो बेकार वह । आंतरिक सम्बन्ध हो , एक से । अनुराग की गहनता में स्वतः वैराग्य गहन होता है और वैराग्य की अवस्था में स्वतः गहन एक से अनुराग हो जाता है । भगवत् चरण अनुराग होने में स्वतः जगत वेराग्य है । छोड़ना नही छुट जाने की स्थिति की प्रतीक्षा हो  ।
उत्कट लालसा पथ को स्वतः विकसित करती है । मिलन की आतुरता में जितना ताप होगा उतना ही गहन असर हो ।

मछली की छटपटाहट सी हालत नही होती हमारी , और हम स्वयं को कितना सिद्ध करते , मछली जल के लिये इतनी व्याकुल होती , विचार कीजिये जल के लिये । और हम प्रेम करते उस अपार सौंदर्य निधि से और हम व्याकुल नहीँ ... बिना व्याकुलता कुछ नही मिलता । मिला तो उसमें रस प्राप्ति नहीँ होती ।
वास्तविक भगवत मिलन की व्याकुलता भगवत् कृपा का वास्तविक रूप है । उनकी कृपा से ही सच्ची प्यास और सच्ची प्यास से सच्चा रस अनुभूत हो सकता है ।
व्याकुलता ऐसी हो कि प्राण से भी सम्बंध न रहें एक मात्र आधार - सर्वस्व वही प्राण वल्लभ हो  ।
वह मिलते है , मिलेगे , साधना तो शुरू ही तब होगी जब वह मिल जाएंगे क्योंकि मिलकर उनका खेल में भी छिप जाना बड़ी पीड़ा लेकर आता है जिसमें एक विचित्र रस भी रहता है । तृषित

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