सत्य भाषण की आवश्यकता क्यों , तृषित
आज के समय झूठ बहुत कहा सुना जाता है । मिथ्या युग है ।
कोई झूठ बोलता है तो पीड़ा होती है , अपना कोई हितैषी असत्य का त्याग करें इसके लिये आवश्यक है प्रथम हम असत्य का त्याग करें ।
असत्य अर्थात् असत् - जो है नही ।
सत्य के संग ही जीवन विकसित होता है , असत्य का संग जीवन की सम्पूर्ण धारा बदल देता है ।
सत्य भाषी के भीतर ही आंतरिक आंदोलन होता है । उसे संसार से निवृत्ति सहज होती जाती है ।
जबकि असत्य भाषी कितना ही भक्त हो वह संसार से मुक्त हो नही पाता ।
सत्य वादी या सच्चे को चाहिये अपने चारों और के छद्म परिवेश से पीड़ित न हो । असत्य से पीड़ित न हो क्योंकि असत्य वह है जिसकी सत्ता नहीँ असत्य से पीड़ित होने पर वह सत्य का आश्रय लेकर दृश्य होने लगता है । असत्य अगर विकसित हो रहा है तो सत्य के प्रभाव से ।
असत्य का आश्रित भयभीत रहता है और सत्यनिष्ठ आंतरिक सहर्ष होता है ।
कुछ आध्यात्मिक दर्शन कहते है कि सत्य चित् को असत्य स्वीकार नही करना चाहिये अर्थात् असत्य होता ही नही , वह है ही नही । वहाँ सन्मुख के असत्य को सत्य जान लेने पर आप आंतरिक पीड़ा से बच सकते है । अर्थात् कोई कुछ भी कहे उसे ही सत्य जानना जिससे आपको धीरे धीरे असत्य प्रभावित नहीं करेगा ।और कथित असत्य सत्य होने में समर्थ होगा जिससे मिथ्या का आश्रय लेने वाला अपने ही चक्रव्यूह में फंस जाएगा जिससे छूटने हेतु उसे सत्य का संग करना ही होगा ।
उदाहरणार्थ कई पौराणिक दृष्टान्त है । भगवान और सन्त असत्य को जानते ही नहीँ । क्योंकि वह द्वन्द मुक्त है अतः भगवान ने पूर्णिमा आदि कथा में भी सेठ की नाव में धन को पत्ते कहने पर तथास्तु कहा । और धन पत्ते में बदल गया , भगवान ने सहजता से उसके असत्य को सत्य ही माना और वह सत्य ही मानेगे असत्य जानते तो असत्य मानते , फलतः वह पत्ते हो गया क्योंकि परम् शक्ति ने धारण कर ली यह बात की वह पत्ते है तो वह धन कैसे हो सकता है फिर , महत्व हमारी धारणा का नहीँ भगवान की धारणा का है ।
असत्यवादी को सावधान रहना चाहिये क्योंकि वह अपने लिये स्वयं जाल बुन रहा है और ईश्वर नित्य सरल सहज होने तथास्तु ही भाषण करते है ।
ईश्वर के तथास्तु का सदुपयोग कर इच्छा को सच्ची इच्छा बना अमूल्य दिव्य रस प्राप्त किया जा सकता है । अर्थात् तथास्तु ही वह कहेगें तो उनके ही चरणों में प्रेम की पिपासा सच्ची होती जाये ।
भावना से ईश्वर वैसा ही फल देते है अतः भावना की शुद्धता आवश्यक है । - सत्यजीत तृषित
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