मिलन कब ??? , तृषित

*मिलन कब ?*😢😢

कब मिलोगे ? कैसे मिलोगे यह सब सवाल है तो इसका सरल सा उत्तर है तुम पिघले नहीँ हो । वरन् कभी वियोग होता कैसे ?
कौन हो तुम ? आज प्रेम पथ के सिद्ध जन का देह बोध नहीँ जाता , प्रेमी देह नहीँ और देह अगर तुम हो तो मिलकर भी बिना मिलें रहोगे ।
खोजो कि तुम कौन हो ? क्या हो ?
अनेकों लीलाओं को , भगवत् कथाओं को उपन्यास की तरह सुनने से रहस्य उदघाटन नहीँ होते ।
विचार करने पर सिद्ध होगा , प्रियतम से कोई मिलता है तो केवल प्रीति । उनके प्रति हृदय का निर्मल प्रेम भाव उनकी ही सहज प्रीति है । देह मान कर मिलने पर उन्हें भी वैसा ही मिलना चाहता है जैसा वह है । हमारा मिलन सदा है , अगर यह ज्ञात हो जावें कि देह नहीँ हूँ "प्रीति" हूँ । उनकी प्रेम भावना से मेरा विकास हुआ उनके ही लिये अतः उनकी प्रीति हूँ ।
देह मानने से दुरी है और इसमें जो अप्रकट - अदृश्य सी एक परिचित सी महक रहती है वह यह सिद्ध करने को होती कि तुम देह नही हो । देह हो तो दुरी है , लक्ष्य बिहारिन बिहारी जु हो और उनके चरण में समा जाने की भावना सत्य हो अर्थात् प्रीति सत्य हो उनसे एक हो जावें तो बाह्य रूप से कितनी ही देश-काल  की दुरी हो  आंतरिक रूप से मिलन हो ही जाता है अपने प्यारी-प्यारे से । भिन्नता की सिद्धि से मिलन पूर्ण नहीँ होता , और हमारे भीतर उनसे जो अभिन्न तत्व है वह उनमें मिल जावें, नित्य भावना में अभिन्न होते होते द्वितीय कुछ शेष ही ना हो तब मिलन है ।
मिलन की स्थिति की सबसे बड़ी बाधा यह है कि आप रहना भी चाहते हो और मिलना भी । मिलन की स्थितियों में आप शेष कैसे हो सकते हो , सर्व रूप उनके चरणों में आप समर्पित हो तो शेष हो ही कहाँ सब कुछ तो उन्हें अर्पित कर ही चुके हो ।
परन्तु प्रीति और प्रियतम का नित्य परस्पर वास है और नित्य ही नव मिलन नित्य ही नव वियोग ।
भक्ति में ईश्वर रहते है और ईश्वर में ही भक्ति ।
इसलिये भक्त के हृदय में भगवान प्रकट होते है , अन्य भोगी जन स्वयं की सत्ता को सत्य जानते और भीतर भगवान की सत्ता को असत्य तो वहाँ भगवान रस प्राप्त नही करते है ।
प्रेमी के हृदय में प्रेमी स्वयं रस प्राप्त नही करता वहाँ भगवान ही रसिक रूप वास कर रसातुर होते ।
भगवान से भी पूछा जाता तो कहते है प्रेमी के हृदय में , सर्वत्र है वैसे पर प्रेमी के हृदय में प्रकट क्योंकि प्रेमी जीव ने समर्पण कर दिया जीवन का  सभी रसों का ।
प्रेमी व्यक्त नहीँ होते परन्तु छिप भी नही सकते प्रेमी वह है जहाँ प्रियतम और उसमें भाव गत भी भिन्नता ना हो अतः व्यक्त नहीँ होकर भी प्रेमी छिप नही सकते । प्रेमी के मौन में भी ऐसी सौरभ है कि वह फैलता जाता है क्योंकि वहाँ भगवत् सत्ता प्रकट है ।
दिव्य चिन्मय यह प्रीति की लालसा आज कोई नहीँ करता । क्योंकि हम आंतरिक रूप से शरणागत होते ही नहीँ , जीव प्रेम पथ पर जीवत्व को भुलाये बिना प्रेममय भगवान को कैसे प्राप्त करेगा । अतः हमारा सम्पूर्ण समर्पण हो , जिससे उनकी प्रीति उनसे जा मिलेगी । शेष रहा जीव भाव फिर सेवक हो सकता है प्रथम प्रीति प्रकट हो , हमारी प्रेम भावना भी नित्य वास्तविक प्रेम भावना नहीँ वह भी अज्ञान न हटने आसक्ति भर है । प्रीति का अर्थ भक्ति रूपी वह आह्लादित भाव है जो प्रियतम के हृदय में प्रफुल्लित है अर्थात् राधा , जीव में जो ईश्वर हेतु प्रेम भावना है वह उनकी ही आह्लादित शक्ति की कृपा से उनकी ही अपनी राधा है , अब जहाँ जितना जीवत्व पिघलेगा प्रीति प्रकट होती जायेगी । अगर ऐसी स्थिति में कोई कहे "मैं राधा या वह राधा" तो यह राधा नहीँ क्योंकि प्रीति अव्यक्त स्थिति है हाँ अपने में अनुभूत प्रिया-प्रियतम का रस जो युगल भाव से स्वयं को अनुभूत हुआ वह भाव दिव्य युगल "सहचरी" है ।
वियोग है देह अवस्था वरन् प्रियतम उनकी प्रीति ,और उनके रस की दृष्टा और युगल के सुख को समर्पित भाव सखी नित्य जीव में है।
जीव भाव ईश्वर का दास्य भाव ही स्वीकार किया गया है यह और रस वर्धक है क्योंकि इस भावना से ही प्रकट प्रीति और प्रियतम के सुख के वर्धन और सेवा हेतु सखी या दास का अनुभव प्राप्त होता है । परस्पर एक होकर भावरस गत भिन्नता केवल रस वर्धन हेतु है । वास्तविक रसिक वह है जिसमें अपार रस हो जिसे अपार रस सौंदर्य प्राप्त हो और जिसने पीया भी हो परन्तु पी कर भी ना पीया हो । भोगी जीव कभी रस विषय को नहीँ जी सकता क्योंकि भोग कर वह विकास को रोकता है ।  प्रेमी पूर्ण पी कर भी एक बूँद को छुते नहीँ अतः रसिक है । रसिक पूर्ण रसमयी शून्य अवस्था है , वहाँ प्रियाप्रियतम और सम्पूर्ण रस प्रकट परन्तु प्रेमी भोग से परे है वह अपने ईश्वर को इस लिये नहीँ निहारते कि ईश्वर से सुख मिलें वह ईश्वर के सुख हेतु उन्हें निहारते है अतः यह विचित्र अवस्था है जिसे साधारण जन नही समझ सकता । प्रीति और प्रियतम की अभिन्नता में जो सेवा भाव विकसित होता है वह सखी है , सखी जीव का वह रूप नहीँ जब वह प्रियाप्रियतम से पृथक् हो । सखी का अर्थ है प्रकट प्रियतम और प्रीति रूपा श्यामा के अभिन्न सेवा रस की भावना , जिसके भीतर प्रीति और प्रियतम भावनाओं में अभिन्नतत्व हो  निभृत निकुँज रूपी हृदय में सुरक्षित हो । सखी युगल के सुख की भावना का नाम है , आज स्व काम विकार को ईश्वर से जोड़ उसे उनकी सखी रूप जाना जाता ।
जबकि सखी हृदय पर युगल चरण संयोग स्पर्श से बड़ा कोई सुख नहीँ । ईश्वर की प्रीति को  अप्रकट ईश्वर को प्रकट कर उन्हे अर्पण कर जो अणु मात्र काम-कामना से मुक्त हो सकें उसके लिये नित्य मिलन प्रकट है । तृषित ।

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