सच्चा प्रचार , तृषित

जयजय श्यामाश्याम जी ।

जयदयाल गोयन्दका जी , गीता के विशेषज्ञ रहे । उनका जीवन गीता रहा , उनके जीवन में गीता बिना कल्पना और स्वप्न दोनों असम्भव रहे । तब विकसित हुई गीताप्रेस । उन्हें आदेश हुआ आंतरिक रूप से भगवत् नाम और गीता तत्व के प्रचार का । जिसे बाह्य परिणत करने में उन्होंने साधनामय जीवन को लगा दिया । यह उनकी निज इच्छा नहीँ अपितु गीता का सार तत्व रूप उनमें प्रकट हुआ अर्थात् यह भगवत् इच्छा रही ।
तुलसीदास राम मय हो गए , राम से परे वह शेष अवशेष भर ना थे , राम ही उनका जीवन । अपितु उनके प्रेम नेत्रों ने राम की अपार करुणा का दर्शन किया , उनकी अपार वत्सलता का । राम को पर ब्रह्म परमेश्वर , धर्म की पराकाष्ठा और पुरुषत्व के सात्विक सार तत्व से अपार प्रेमी , सहज , सरल , निर्मल , अति करुण रूप में देखा उन्होंने । अतः उन्हें जीवन के उत्तरार्ध में आदेश मिला मानस का । तुलसी बाबा का मानस ही राम था तब । अतः आंतरिक भावना से राम भक्ति का मर्म प्रकट हो सका ।
कहने का अभिप्राय इतना है आज भगवत् तत्व का प्रचार मुख्य रह गया है , डूब कोई नही रहा ।
कोई लड़की "श्री राधा" कमेंट में लिखने को कहे तो अगले दिन 50000 कमेंट तैयार हो जाते है । यहाँ शब्द बदल भी जावें तो भी उतने ही कमेंट तो यहाँ भगवत् नाम से कहाँ प्रेम हो रहा और कहाँ उसका प्रचार हो रहा ।
प्रचार का अर्थ है किसी पाषाण हृदय को द्रवित करने का सामर्थ्य हो ।
आज सब भक्त है कोई फेसबुक पर तो कोई पहनावे आदि से ।
वास्तविक भक्त तो कही खो ही गया है और उसकी भक्ति की कही चर्चा नहीं ।
हमारे कुछ साथी एक सज्जन को आदर्श मानते और वाणी से उनकी नकल का प्रयास भी करते है , वह ख्याति प्राप्त परन्तु आंतरिक सरलता नहीँ बाह्य छद्म ही । मैं अपने साथियो को कई बार कह चुका हूँ भगवत् नाम स्तोत्र भी अगर जीवन में उतारना हो तो सच्चे से उतारो । क्योंकि जहाँ नाम में लोक या जगत की कोई भावना होगी तो वह ही विकसित होगी । सरल हृदय की सुनो भले वह सुनने में उतना सुंदर ना हो परन्तु हृदय सरल हो । रावण के मुख से जिन्होंने राम नाम सूना वह दैत्य राम भक्त ना हुए । हनुमान जी ने कहा भी नहीं अपने हृदय रूपी राम को परन्तु समूचा वानर उनके जीवन रूपी राम से प्रभावित हो राम सेवक हुए । भक्त का पहले जीवन बोलता है , वाणी बाद में और वाणी उतना नहीँ कहती जितना जीवन । हनुमान जी के लिये प्राण-जीवन सब राम है । अतः सूक्ष्म से सूक्ष्म भावना का प्रभाव प्रचार पर पड़ता है । प्रचारक में तनिक भी स्व सुख या विलास का भाव हुआ तो वही नाम उतना असर नही प्रकट कर सकेगा क्योंकि भावना में नाम कहने पर भी हृदय में दूसरी वस्तु ही चिंतनीय ।
आज मैनेजमेंट के युग में भक्ति को एक मैनेजमेंट से प्रचार किया जाता जो प्लास्टिक के फूलो की तरह दिखावटी होती । फैशन बन गया आज गोमुखी रखना  , ऐसा फैशन कभी मेरा मन भी होता भजन का तो आसपास के लोग मुझे भी फैशन में डूबा समझते , अभिनय बना दिया गया । सो मन होने पर गोमुखी संग नही होती , मन में सुमिरण । क्योंकि दिखावे ने हद पार कर ली है । चलते फिरते भजन जब हो जब भजन बिन एक पल ना लगे , आज बैठ कर तो हम गेम खेलते , बाते करते और चलते समय भजन करते दिखते कि हमें भजन का एक क्षण का वियोग नही सुहाता ।  जबकि वास्तविक भजन देश-काल -स्थिति का मोहताज़ नही , नींद में भी भजन करते वास्तविक साधक ।
आज हर कोई प्रचारक हो गया । वास्तविक प्रचारक भगवान स्वयं चुनते है , सम्भवामि युगे युगे । प्रचारक साधक अवस्था नहीँ है सिद्ध अवस्था है जैसे रसिक सन्तोँ से हनुमान प्रसाद पोदार जी तक । हम तो साधक भी नहीँ , भोगी जीव है । वास्तविक प्रचार सामने आये इसलिये कह रहा हूँ बनावटी प्रचार का  त्याग कर प्रथम साधना कर रसमय होना होगा । डूबना होगा , भर जावेगा भगवत् रस तो अपने आप छलकेगा । आप भजन रस में भर गए ,चरित्रों को पुस्तक से जीवन में ले आये तो आप की आवश्यकता प्रकट होगी स्वतः । तब रसास्वादन इतना प्रिय होगा कि बाहर नाम पुकारना भी सहज स्थिति ना होगी । भगवत् नाम वही असर करता जिनका जीवन नाम से परे ना हो , वरन् हेलो की जगह लोग नाम लेते ही ना , नाम को बोलचाल के शब्दों की जगह की आवश्यकता नही , यह परम् रसिकों की नकल है जिनके जीवन में नाम से परे कोई वस्तु नहीँ , उनकी नकल जो कहना कोई और शब्द चाहते है निकलता नाम ही है ।
अर्थात् एक रस अवस्था पर जब चित् डूब जावें मन न हो किसी से आंतरिक स्थिति की व्याख्या का तब हरि स्वयं कहते जाओ सबसे कहो । अथवा आपको समुदाय में खड़ा कर देते तब आपके पास द्वितीय वस्तु होती ही नहीँ भगवत् रस के अलावा तो वह स्वभाविक छलकता , उस स्थिति में भगवत् तड़प की सुगन्ध से ही काम बन जाता जगत का ।
स्वयं हनुमान भी प्रचार कर रहे हो तो रस पीता वह है जिसे वह चुने वरन् रावण की सभा में हनुमान जी के उपदेश का असर होता जो कि बिना उपदेश वानरों की शरणागति का कारण बना । वानर शरणागति सहज नहीँ है , हनुमान जी का वानर रूप क्यों इस पर साधकों का एक वार्ता देखी जिस पर समय रहते चर्चा हो कभी । वानर सहज मन एकाग्र नही कर सकता , उसकी चंचलता नर से अधिक है । राम नाम का प्रभाव हनुमान को ऐसा सिद्ध करता है कि वह राम नाम रूपी श्री विग्रह रह जाते है । राम नाम का विग्रह ही हनुमान है और वें ही बिन व्यक्त हुए भक्ति के उद्भव रूप और सर्वोच्च नाम रसिक स्वरूप । राम नाम की महिमा हेतु वानर स्वरूप यहाँ स्वीकार हुआ । जिस पर असर सम्भव नहीँ वहाँ असर बताने । वानर भगवत् रस में आज भी शरणागत , मानव की अपेक्षा । वानर भगवत् रस जागृत स्थलो पर अधिक विचरण करते आज भी दीखते है भारत में । मैंने तो किन्हीं को कहा भी था जिस दुर्लभ मन्दिर में वानर अधिक हो वह कोई सन्त भूमि रही होगी । क्षमा । "तृषित" । जयजय श्यामाश्याम ।
राम को नाम प्रचार के लिये मनुष्य की भी आवश्यकता नहीँ जब आवश्यक हुआ वह वानर ही क्या कोई भी सेना खड़ा कर सकते है । वास्तविक राम तत्व ऐसा गहन जिसका नराकृति सहजता से संग करती ही नहीँ । यह समर्पण सिद्धांत को कहता है , हम मानवों का समर्पण भी व्यापार है ।

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