वो प्रेम समेट नही पाते , तृषित

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नहीं ! उनसे अपना प्रेम समेटा नहीं जाता ! नित्य नव महा मिलन से वें व्याकुल , स्पंदित , तरंगित रहते है !
जैसे - लहरें तरंगित होती है ... किसी बाहरी मिलन को छु कर !
नित्य मिलन ... प्रेम की वो महा अनुपम स्थिति उन्हें इतना आवेगित कर देता है कि उस परम् सत्ता को नन्हीं कोपल की भांति या नव वधु भांति सम्भालना होता है ! जो प्रेम रस में तिरोहित शक्तियाँ है वें जानती है दोनों की भीतरी स्थिति ! कभी - कभी मुर्छा गहरी हो जाती दोनों की ! जाग्रति भी आवश्यक है क्योंकि परम् शक्ति परम् तत्व स्वयं ईश्वर प्रेम - माधुर्य में नहाकर अपने रस का वर्धन कर तो रहे है पर उनकी ऐसी स्थिति गुप्त रहे ! वरन् कौन सुनेगा फिर ...
फिर रस-माधुर्य युगलराज का क्षणिक अन्त: शुद्धि मात्र से परम् प्रेम मिलन दर्शन का खुला निमन्त्रण है !

*मेरा पथ साधना से सम्बंधित नहीँ है , वास्तव में मैं उस सूखते वृक्ष की तरह हूँ जिसे पोषित करने वह वर्षा हो गए , उनकी कृपा । उनका प्रेम । उनका रूप । उनका स्नेह । उनका ही सब । सब , यकीन मानिये मैंने उन्हें कभी प्रेम नहीँ किया , और उन्होंने कभी प्रेम हीन हो कर ना देखा , वो नित्य प्रेमी है । मुझे सिर्फ इतना सा पता उन्हें प्रेम है , रहेगा । सदा ... !!*  *उन्हें इतना प्रेम है कि प्रेम करने का साहस ही नहीँ । उन्हें अपार प्रेम है , प्रेम से भिन्न वह है ही नहीँ । मेरी अधमता तो विषय मयी होनी चाहिये थी परिणाम से , आंतरिक शुद्रता के परिणाम में बाहर प्रेमीजन संग होते ही कैसे ? परन्तु उनकी अपार कृपा से वो और उनके प्रेमी नित्य संग है । उनकी ही सहज कृपा मेरी साधना है , उन्हें इतना प्रेम है कि मुझे जड़ हो जाना अब उन हेतु क्योंकि उन्होंने कोई अवसर छोड़ा ही नहीँ नित्य नव मेघ बन रसवर्षण करते । और उन्हें दिया भी तो क्या जाएं , पाषाण सी हैरां हूँ ...* *तुम क्यों इतना प्रेम करते हो । देखो तो सही किससे कर रहे हो , यह मलिन जीवन वह प्रेमपात्र है ही नहीँ फिर भी । तुम पात्रता तो देखा करो न । यू मेरे सम मलिन को प्रेम करोगें तो तुम्हारे निज पथिक तुम्हें क्या कहेगें ? सच मुझे वाणी हीन होना ,पर वह भी नही हो पाता क्योंकि तुमने इतना प्रेम जो दिया और जो दे रहे हो उससे सुंदर पुष्प सम कोमल निर्मल मन कैसे तुम्हारे होंगे ।*
*मेरी विनती है प्रिय या तो तुम मुझे प्रेम ना करो , वरन् मुझे स्थूल कर दो , जड़ कर दो । क्यों ?*
*देखो मैंने साधना पथ को अनेको बार खण्डित किया , तुम संग न रहो हर प्रयास किया । चले जाओ प्राण , चले जाओ , ना रहो संग ... समझो न नहीँ हूँ आप हेतु । सम्भव ही नही ।* 

*सच , मेरे प्रियतम को मैंने कभी स्वप्न में भी नही प्रेम किया , झूठा भी न किया । परन्तु उन्हें सदा रहा । हैरान हूँ , निःशब्द ही । पर , उनका प्रेम ही जीवन रूप शेष ...*

जीव इस परम् रस का पान ना कर सकें यें जीव की मलीनता है वरन् ईश्वर ने कभी किसी को नहीं रोका ... सत्यजीत "तृषित"
तृषित कभी सरस नही होता । आपने सूखे पुष्प देखें होंगे पर काँटों से भी कोई क्यों प्रेम करता है , पता नही ।

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