ज्ञानेंद्रिय का प्रभाव

ज्ञानेन्द्रिय का अर्थ भले ही भोगी जीव को ज्ञात ना हो । परन्तु ईश्वर को ज्ञात है । हम ज्ञानेंद्रिय को भूल से भी सदुपयोग करें तो वह उसे सत्य सिद्ध कर सकती है कारण ज्ञानेन्द्रिय का अर्थ ही है जानकर किया ।
कोई कहे देखो हाथी उड़ रहा तो हम जान जायेगे यह असत्य है अतः नहीँ देखेगे या यह जान कर की बात असत्य उसने दृष्टि बोध प्रकट नही कर के हास्यास्पद देखेगे ।
अर्थात् हम देखते भी उसे है जिसे मानते है , जहाँ विश्वास है । अतः भगवान को निहारना भी यह सिद्ध करता है कि आप उन्हें मानते हो । जो उन्हें पाषाण मानते है वह निहार ही नही सकते ।
इसी तरह भगवत् नाम में दिव्य शक्ति है , शब्द से शब्द सृष्टि तक विकसित हो सकता है यह भले हम ना जाने परन्तु निरन्तर भगवत् नाम से वह इच्छा और भावना होने लगता जिससे भगवत्-नाम अपनी चुम्बकीय शक्ति से सम्पूर्ण भोग आसक्ति को भगवत् अनुराग में बदलने में समर्थ है । राम का चिंतन ही कलयुग में भी राम को प्रकट कर देता है । यह भावना का प्रभाव है । कई बार ईश्वर की भावना होती , नाम भी होता , परन्तु रस अनुभूति नहीँ होती , क्योंकि कोई और भावना अगर सूक्ष्म रूप भी है तो पहले वह ही सिद्ध होगी ।
ईश्वर ने करुणा कर भावना रूपी ऐसी शक्ति दी है और कहा है मैं तेरी भावना के अनुरूप चलूँगा यह उनकी करुणा ही जीव के अज्ञान के कारण माया जगत विकसित करती और यह बोध होने पर कि वह भावना के प्रतिरूप ही प्रेमी को प्राप्त तब भावना शुद्धिकरण आवश्यक होने लगता है । भगवत् नाम का निरन्तर चिंतन नाम की ही भावना को शेष करने में समर्थ जिससे भीतर अन्य शेष रहता ही नही , भीतर अन्य न रहा तो बाहर भी अन्य कुछ नही होगा ।
कितने करूण है वह हम ज्ञानेंद्रिय का अपने अज्ञान से भी सदुपयोग करें तो भी फल प्राप्त होता है । इसलिये सन्त कहते है नाम सुमिरण करो । ईश्वर तो मानते है ज्ञानेंद्रिय अर्थात् जान कर - मान कर स्वीकार सम्पूर्ण श्रद्धा-विश्वास से ही भजन हुआ । अतः सन्त ज्ञानेंद्रिय और कर्मेन्द्रिय को सदुपयोग में लगा देते जिससे शरणागत आनन्दित हो उठता है । कर्मेन्द्रिय का सदुपयोग सेवा में है । सेवा काम-शुन्य(कामना रहित) कर्म है , जिससे कर्म होकर भी वह कर्म नही है , वह सेवा है । कर्म में फल आसक्ति होती है । सेवा में फल आसक्ति है तो वह कर्म है , सेवा नही ।
सन्त स्वयं नाम का रसपान करते है और नाम में डूब अपने प्रियतम प्रभु के रस-आनन्द में छके रहते है । वहाँ नाम दिव्य भावना से दिव्य रसपान कराता है । क्योंकि सन्त नाम और नामी(जिनका नाम) उन्हें तनिक पृथक् नहीँ जानते । यह ज्ञानेंद्रिय का जानकर किया प्रभाव है । ज्ञानेंद्रिय ईश्वर से अभिन्न करने में समर्थ है । - सत्यजीत तृषित

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