विदेह जीवन कविता , तृषित
विदेह
ना ऐसा ना करना
कभी ना करना
देखो मृत कर देना
विदेह जीवन मत देना
क्योंकि अब हर पल तुम बिन
जैसे मुझे कर जाती है रिक्त
मन खोजता है हर वन उपवन
कहाँ गए फिर मेरे जीवन धन
तुम बिन देह होती पर मैं ना वहाँ होती
खोजती तुम्हें अपने ही हृदय कुँज में
स्वयं ही कही खो जाती विधि निषेध बन्धन में
तुम संग हूँ तो हूँ विदेह
तुम संग ना हूँ तो भी विदेह
होती हूँ किन्हीं मोहक वेणु तरंगों में
पर हूँ विदेह ,
अब युग वह नही जब होते राज विदेह
वनवासिन होती रामराज्य में वैदेही
वह देह नहीँ थे , नित्य संगी ही सदा रहे थे
मैं भी देह तो नही हूँ ,
पर क्यों नहीँ हूँ
कहाँ नहीँ हूँ यह अब आसां भी नहीँ ...
सच अब देह और यह जीवन
जिनके तुम नही हो
जिनमें तुम नही हो
उनसे रहूँ अपरिचित
हो जाऊँ स्वदेश में परदेश
इस देह से होती तुम्हें पीड़ा प्रिय
यह जीवन और वह जीवन
... क्यों अब भी इतना द्वेत
कहना नहीँ अब तुमसे
कहना तो पर की विवशता है
तुम तो मेरे हो
बिन कहे जी लूँ तुम्हें
यहीं तो सार्थकता है
पर क्या कुछ ना कहने से तुम रूठे हो
दो बात भी तो तब हो न जब तुम मुझसे कुछ परे हो
सब हो तुम , फिर क्यों नही हो तुम
मन में हो तुम तो तन संग क्यों नही हो तुम
जीवन हो तुम , तो मन संग वह बहते जीवन हो तुम
कभी विचारना प्रिये मृत होना सहज था या विदेहित सा यह जीवन ।
तुमने तो अमर किया फिर विरह विष पीला कर मृत्यु को भी स्वप्न किया
तुम खेलते भी सुंदर हो मेरे संग खेल सको
तब भी मुझे इतना ही स्मरण रहे तुम महाप्रेमी हो सच्चे
मेरे इस असंग में , तुम बिन जी कर मरने में ,
तुम्हें हर बार भूल जाने में
... ... स्मरण होगा तुम्हें तो यह प्रेम ।
और मेरे मनहर तुम कभी न भूलोगे दासी अपनी ।
तुम जैसा कहते वैसा जीवन सहज नही
पर मेरे हित तुम हो
मेरे स्वामी तुम हो
मेरे जीवन तुम हो
मेरे प्राणों के प्राण तुम हो
तब तृषित विदेह सी भी जी लूँगी
प्राण जब त्याग करो मेरा , बता भी देना
उस विष रूपी जीवन का पल भी बाणों की शैय्या सा होगा ।
मुझे तृषा ही देना अपने स्मरण की वरन् जीवन का विष ...
-- तृषित
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