तृषित का अर्थ

तृषित ।

यह रस स्थितियों में प्रकट उनकी अवस्था है , जी रसिक शेखर । जहां प्रिया जु सन्मुख तृषित चकोर हो जाते है । वह ही रसिक शेखर तो वहीँ परम् विशुद्ध रस की प्यास । यह तृषा अति उज्ज्वल है । यह तृषा श्री किशोरी के वे जितना निकट जाते है गहन होती जाती है । देते समय वें ईश्वर भाव से है । तो जितना चाहता उतने गहन रसिक । लेते समय वह उतने ही गहरे पात्र है चूँकि श्री कृष्ण ही प्रिया रूपी रस समेटना चाहते परन्तु उनके ही प्रेम को पुष्ट करती प्रिया जु इतनी उज्ज्वल है कि अनन्त काल से सदा तक श्री कृष्ण प्रियाजु की रूप माधुरी का पान करते हुए कोई भाव स्वयं में पाते है तो वो है तृषित । वह यह कभी नही स्वीकार पाते मेरी पुष्टि हो गई । नैनो में नैनन डाले निरन्तर श्री प्रिया के प्रेम तो कभी सेवा चिन्तन में डूब जाते है । उन्हें व्याकुलता से मुक्त करने को प्रियाजु उनकी भावनाओ में डूब रस प्रदान करती है और वें प्रियाजु की प्रेम वेचित्यता में प्रियाजु को रस देते है उनकी तत्क्षण भाव दशा में प्रवेश कर । परस्पर भाव रस में गोते लगते रहते है और दोनों खड़े रहते परस्पर निहारते हुए । युग बीत जाते है । योगमाया सखी रूप उनके प्रेम की रक्षा करती है , युग क्षण ही उन्हें प्रतीत होते है । और बनी रहती है विशुद्ध प्यास ।अतृप्ति । श्री प्रियतम प्रिया रूपी रस का निरन्तर पान कर भी अतृप्त इसलिये क्योंकि श्री प्रिया रूपी रस ऐसा सहज जैसा हमारे लिये श्री कृष्ण विग्रह । जो सँग रह कर सेवा करने पर भी संतोष नही देता । हम जैसे उनसे मिले हुए ही पर भाव यही कि कभी मिलन हो .... जबकि मिलन ही हुआ है हमारा सदा , मृत्यु बाद नर्क में भी वो हमें नही त्यागेंगे । अणु अणु सभी भुवन में उनके सँग ही है । क्योंकि प्रत्येक सृष्टि उनके रोम कूप की उज्जवता से प्रकाशित है तो अनन्य सम्बन्ध है । यहाँ तक भी आप पुराण चिन्तन करें तो प्रलय काल में भी वें सृष्टि में जागृत रूप सृष्टि के आवश्यक तत्वों की रक्षा करते । जैसे मीन अवतार । गहन मिलन में एक हो जाने से दूसरा खो जाता है । वैसे ही श्यामा सन्मुख वह पूर्ण रूपेण अपने भीतर बाहर श्यामा को जान उनकी भाव दशा के कारण तृषा का ही वर्धन पाते है । जीव भी ईश्वर से मिला हुआ । हृदय में प्रभु प्रकट । और मनुष्य तन इस आंतरिक मिलन को स्वीकार करने वाला विशुद्ध स्वरूप । जिसे विवेक प्राप्त । परन्तु , यह मिलन इतना गहन कि वह उन्हें खोजता है सदा बाहर । ऐसे ही श्यामा सन्मुख वे खो गए , उनके भीतर बाहर वहीँ ही । अब कोई वहाँ उन्हें हिला कर पूछे तो वह तत्क्षण पूर्ण प्यासे , जैसे प्रियाजु को देखा भी नही । यह तृषित रूप , जो केवल रस में इनका प्रकट । क्योंकि वहाँ यह ले रहे रस , दे नही रहे । ले रहे तो बस ले ही रहे । श्री प्रिया भाव इनमें प्रकट होता , प्रिया तो तत्सुखी की विकसित मधुर कमिलिनी । तो प्रिया उन्हें देखती उन्हें सुख हो , उन्हें रस हो , अपने में कोई भोग है नही उनके , केवल कृष्ण सुख की प्यास । तो देखते देखते यही प्यास श्यामसुन्दर में बहने लगती है , उन्हें सुख मिलता है परंतु प्रिया के मन भाव से एक होने दोनों परस्पर निहार तृषित चकोर वत हो जाते है । भौतिक रूप तृषित भोग की प्यास नही है । रस में रस से रस की रसमयी रस भरी है गहन यह तृषित अवस्था उनकी । तृषित । जयजय श्यामाश्याम । रसिको ने इसे बड़े सहज रूप से गाया है ।

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