उमगि हिंडोलम - तृषित

श्रीवृन्दावन सखी । हिंडोल विलास की किंचित् झाँकी सुनी ही होगी , प्रीति हिंडोला भाव में । सखी यह रस जिसमें डूबने को तुम अकुला रही हो यह तनिक विचित्र है । जब कह्यो जावें हिय को आसन-सिंहासन-सेज बनाय अर्पण करो तब भी प्राकृत स्थिति शेष होवे से हिय मांहि वो हिंडोल ना प्रकट होवें जो सहज प्रीति में रह्वे । यह विलास उमगन भर्यौ है । उमगन युगल श्रृंगार की , युगल चेष्टाओं की , युगल प्रीति कौतुकों की , युगल सखी के हुलसित हिय की , श्रीवृन्दावन के उमगते झूलते श्रृंगार की । वल्लरि पर झुला जब ही होवें , जब वह रस में भीगी हो क्योंकि सुखी वल्लरि पर झुला टुट  सकता है रि सो हिय में खिलती लतावृन्द से झूमती झुम में युगल का झुला समेटने हेतु नित्य रस भीगी धरा होवें अर्थात् हिय नित्य रसवर्षा से भीगा हो । वल्लरि झुल रही हो इतना रस हो भीतर । फिर हिय हिंडोला होगा सहज क्योंकि नित्य रस में युगल झाँकी में नित्य ही एक हिंडोरा है । यह हिंडोरा श्रीयुगल के स्वभाव से स्वरूप और प्राणों से कौतुक तक नित्य है । प्रेम रस के झोटे है यह ...नयन से नयन के हिलोरे । यही प्रयास रह्यौ प्रीतिहिंडोला में निवेदन करने को । सखी मनुष्य में यह झुम ...यह हिंडोला अनुभव का अभाव  है । वह इस झुम को जब भी जीवन में पाया बेसुध हुआ है और यह बेसुधी उसकी वान्छा भी है तब भी वह समझ नही सकता कि कैसे हिय नित्य उमग में भरा झुमता रह्वे । शिशुकाल मे  कौन झुला या हिलोरे से पौढाई में नही खोया होगा । शेष जीवन में मनुष्य स्वयं थक कर सोना चाहता है पर शिशुकाल में वह ना थकना समझता है ...ना शयन को छूना । अगर माँ हो या माँ को अनुभव किया हो तब महसूस हुआ ही होगा कि खेलते शिशु को शयन मिलता है गोद में लेकर हिलोरे देने से और हिलोरे रुकने पर विश्राम भंग भी हो सकता है । शेष जीवन में भी मनुष्य इस हिलोरे को छूने के स्वांग बुनता है भले वह आकाशभृमण (पैराग्लाईडींग आदि) हो तैराकी (स्विमिंग)आदि सभी स्थिति में हिलोरा चाहिये उसे । पर स्थिर अवस्था प्राप्त होने पर भीतर श्रीयुगल लाडिलीलाल कोमल फूल लेकर उन्हें उनके हुलास में भीगा उमगन भरा भरने से , हिय एक हिंडोला होता जाता है भीतर निहारते और हिलोरे-निहोरे से पुकारते हुये ।
यह सब बात आज व्यर्थ ही है क्योंकि विषय प्रीति के कीचड़ में दबा मन भावरस की सुगंध नही ले सकता । परन्तु सुगंधों के उपवन में हृदय प्रीतिसुगंध का पान कर लहरित ना हो तब पीडा होनी चाहिये कि कितनी स्थूलता है अभी । हिंडोला-उत्सव का अग्रिम भाव जो प्रकाशित होगा वह है ..उमगि हिंडोलम । युगलार्थ निवेदित वह भाव युगल की अप्राकृत मधुरताओं का तत्क्षण विलास रहा होगा तनिक झरण भर निवेदन होगी क्योंकि इस प्राकृत संसृत-धरा पर रस-फूल सूख जाते है सो रजोपासना ही इष्ट है । जो भावुक तत्क्षण युगल सँग यह अनुभव लिये वह ही अनुभव करेंगे कि वही भाव श्रवणार्थ वैसा नही रहा है तदपि वह एक सरस गाढ सेवा रही सो अनुकृत स्वर की सहज भावना सुलभ ना होने पर भी (अर्थात् रिकॉर्ड में वह माधुर्य सरसता छूटने पर भी) उसे भावुक हिय वासित युगल को वही क्षण नवीनताओं से अनुभव कराने का एक और संयोग । प्रेम तो संयोग का अर्चक है सो धुंधला भी संयोग बने आपके हिय में श्रीयुगल उमगन का वह दास की हियभाव लहर को हुलसित ही करेगा ।
यह तो सुनने पर बहुत से भावुकों को अनुभव हुआ ही है कि व्यर्थ श्रम है यह सब सुनना तदपि युगल को निजभोग देने के लिये लालायित वह हृदय वैसे ही युगल सेवक है जैसे माँ द्वारा बजाकर बालक को झुन्झुणा सुनाया जाता हो क्योंकि इन विलास-हुलास उमंग-तरंग  आदि से श्रीयुगल में हिलोरे निहोरे खेलने लगते है ।
एक बार हिय हिंडोले पर आरूढ़ युगल के उतरने पर वह भावुक पुन: - पुन: स्वयं को खोकर युगल को विराजित रखने के लिये उमग उमग कर पीना प्रारम्भ कर सकता है । तृषित । इस सेवा में युगल की मदिरा है उनकी निजता का निजतम श्रृंगार ...यह युगल मात्र व्यसन है और पिलाने वाला एक खाली झूलता झूमता पैमाना (पात्र) । प्राकृत मदिरा पात्र को नही नचा सकती परन्तु युगल की निजमदिरा का पात्र इस उमगन-हुलसन के झोंटे से छुट नही सकता । सुनिये मेरे श्रीश्यामाश्याम । प्रेमी हिय में विलसते श्रीश्यामाश्याम । जयजय श्रीश्यामाश्याम । जयजय श्रीश्यामाश्याम ।

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