निकुँज

*निकुंज*

निकुँज हृदय , क्या महिमा-क्या स्वरूप कहना संभव है वाणी से  इनका । निकुंज है हृदय ....किसका हृदय श्रीश्यामा का हृदय श्रीश्याम का हृदय । यद्यपि ये पृथकता है नहीं परंतु लीला हेतु जब दो विग्रह प्रकट हैं तो परस्पर सुख अनुभव हित सेवा हित प्रेम दोनों तरफ से क्रीडायमान है । निकुंज प्रियाप्रियतम का मिलित हृदय ही है । श्री युगल मिलन सहज सुख विलास स्थली । निकुंज अर्थात् अपने प्रियतम के सुख का कुँज , कुँज में कुँज से सजे सुवास भाव-लता-वल्लरियों की गहनता से खिल रहे भाव-निलय ...निकुँज । निकुंज सहज प्रेमी का वह हृदय है जहाँ केवल उसके प्रेमास्पद के सुख का  विलास-सेवा-हित रचा जा रहा है । और अपने प्रेमास्पद के सुख को रचना (श्रृंगार) ही प्रेमी का एकमात्र सुख होता है । श्रीश्यामाश्याम परस्पर प्रेमी भी हैं और प्रेमास्पद भी तो यह निकुंज श्रीयुगल की मिलित-भाव हिय-रस स्थली है क्योंकि निकुँज लीला श्रीश्यामाश्याम की गहन प्रीति सँग से ही खिल रही होती है । प्रियतम हृदय निकुंज में श्रीश्यामा सेव्या - आराध्या - स्वामिनी हैं और श्रीश्यामसुंदर सेवक - आराधक - दास हैं । श्रीप्रिया हृदयनिकुंज में श्रीप्यारे प्रियतम प्राणवत सेव्य-आराध्य हियमणि हैं । श्री प्यारी जू के लिये श्रीलाल जू प्रियतम हैं और श्रीलाल जू के लिये श्रीश्यामा प्रियतम (प्रियतमा) हैं , तत्क्षण ही श्रीश्यामसुन्दर का कैंकर्यत्व पूर्ण विकसित हो रहा है श्रीप्रिया सँग से सुरभित सेवा-लोलुप्ति । प्यारी प्रिया ही लाल जू के हृदय निकुंज में प्रियतमा हैं । प्रियतम अर्थात् पुरुष रूप वाच्य ही नहीं वरन प्रियतम एक भाव है (गहनतम वह प्रिय जिससे प्रिय और शेष ना होवें) । जो श्रीश्यामाश्याम हृदय निकुंज में ही प्रकाशित होता श्रीश्यामाश्याम के प्रति ...प्रियतम । दोनों के हृदय निकुंज केवल हृदय में भाव रूप ही नहीं  वरन प्रत्यक्ष श्रृंगारित साकार है जहाँ वे निज निज प्रियतम की सेवा को जीते हैं , सखियाँ इस मिलितहृदय भावना का प्रकट श्रृंगार ही है । श्रीश्यामा हृदय निकुंज में श्रीश्याम मीनवत् हैं और बाहर-भीतर सर्वत्र श्रीश्यामा सेवामय हैं । श्रीश्याम की हृदय भावना झारी ही साकार श्रीनिकुंज की रज हो बिछी रहती उनकी प्रियतम स्वामिनी श्रीश्यामा के पथ पर । यहाँ की प्रत्येक श्रृंगार सामग्री रसोपभोग पदार्थ सखियाँ मंजरियाँ सहचरियाँ वृक्ष लता पुष्प खग मृग अणु-अणु श्यामाश्याम के हृदय की भावनायें हैं जो अहिर्निश निजप्रियतम सेवा में उलझी हैं । युगल श्रीपियप्यारी की निजप्रेमास्पद सेवालोलुप्ति-प्रियतम श्रृंगारवृति की हियनिकुँज को एक निकुँज में रस चेतन कर श्रीप्यारीप्यारे जू के नित्य आह्लाद की हार्दिक भावनायें उनकी कायव्यूहा है अर्थात् परिकरी है । यहाँ वे दोनों अपने रोम-रोम से निजप्रियतम की सेवा में संलग्न हैं । इन दोनों का पारस्परिक सुख और सेवा भाव इतना गहन और गुंथा हुआ है कि कौन कब किसकी सेवा कर रहा , कब कौन सेव्य है  ..कौन सेवक यह समझ पाना ...मिलित हृदय की सेवा झरण के लिये ही समर्थ है । यहाँ सेवा सिद्ध सेवा है यथार्थ रूप है प्रकट सेवायें है । जिसके कारण हम प्राकृत जीव जो सेवा के स्वरूप को जानते ही नहीं , इस निकुँज सेवा का चिंतन कर ही नहीं पाते । अपने मन के अनुकूल भावों को सेवा समझते हैं । सेवा प्रेमास्पद के सुखों का श्रृंगार है ...हृदय देने पर ही प्रियतम-हृदय की भनक भरने लगती है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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