अन्तरिक्ष , तृषित
*अन्तरिक्ष*
अन्तरिक्ष , इसका सम्पुर्ण अनुभव अन्तर ही कर सकता है क्योंकि अन्त रहित क्षेत्र है अन्तरिक्ष ।
बाह्य लोक में ग्रह नापने के नाम पर सामर्थ्य का दुरपयोग ही है क्योंकि जितनी सूचना शास्त्र ने अन्तरिक्ष की सुलभ कराई है उतनी अपनी बाह्य कोशिशों से नही होगी । तब भी वर्तमान में अन्तरिक्ष को छूना एक गौरवमय संदेश है ।
विश्व के सभी अन्तरिक्षविज्ञ मर्मज्ञों को कभी छिप कर या प्रकट में प्रमाण सुचित करने हेतु शास्त्र सँग करना होता है ।
शास्त्र एक कुंजी से बन्द है वह है परमार्थ । जिस हृदय में परमार्थ होगा शास्त्र विपुल विज्ञान होकर खुल जावेंगें वरण यही शास्त्र उलझ-उलझाकर मनन करने से मृत्युलोक को मृत्यु से छुड़ाने की अपनी परियोजना प्रकट नही कर पावेंगें ।
मनुष्य कृत्रिम हो सकता है परन्तु जीव शिव की सृष्टि नही कर सकता तदपि जीव में उद्भव-स्थिति-संहार के सूत्रधार की शक्ति ध्वनित है जिससे ही वह जीवन में विवेक अभाव से दुर्गति सजाता जाता है ।
जीव की लोलुप्ति है अप्राप्य लोक का अनुभव छूना । बोध और समझ अनुरूप वह अप्राप्य लोक गोलोक -वैकुण्ठ -स्वर्ग हो सकता है अथवा वह अनुभव कोई नवग्रह छूना हो सकता है । प्रेम में भाव के भूखे को प्रेमास्पद सँग ही लुभाता है शेष वह दिव्य लोक का भी सँग छोड देता है । जबकि किसी लोक पर जीव की कोई सत्ता है नही तदपि उसे लोभ और वान्छाओं को छोड़ना है अप्राप्त भोगों के प्रति आसक्ति छोडकर ।
इससे लाभ यह है कि बाहर स्पष्ट धरती के मर्मज्ञ धरती से परे धरती की खोज को छूकर दिव्यता में है जबकि और नवीन इकाई असंतुलित पर्यावरण की इसके अतिरिक्त कुछ भी इससे प्राप्य नही है । तदपि भीतर को बाह्य पाने की वाँछा ।
जबकि भीतर अनुभव पाने पर अन्तरिक्ष का अपरिमित अनुभव मिलता है अपितु अन्तरिक्ष से भी दुर्लभ अनुभव स्पर्शित होते है ।
ज्योतिष एक विज्ञान है जिसका शोध बुद्धत्व की बात है जिसकी ज्योति (प्रज्ञा) प्रकट हो । वहाँ कथित स्वभाव-स्वरूप की छाया की ही खोज मिल रही है जबकि इन खगोलिय पिण्ड का दर्शन हृदय पर प्रकट हुआ है ना कि कृत्रिम यन्त्र से परन्तु वह सिद्ध अनुभव मिथ्या नही है , विज्ञान को भौम लाल रंग का ही मिला है जबकि पुरातन शास्त्र से और भी न्यूनतम शोध अंकित किये हुये है । किसी ग्रह का जीवन यात्रा पर विशेष प्रभाव होने भर से जीवन में स्थितियाँ असंतुलित होती है तब धरा के आश्रय से जीवन-रहित ग्रह पर जीवन-इच्छा क्यों ?
मानव साधक है और साधक को विश्व की नव आधुनिक ऊहापोह मौन होकर निहारनी ही है (दृष्टाभाव) इन काँच के नव स्वप्नों में जीवन रूपी अन्तरिक्ष आस्वादन को भंग नही करना है ।
शास्त्र में अनछुआ नभ भरा हुआ है और सिद्धरसिकों की ध्वनियों का अनुसरण किन्हीं दिव्य लोकों से तादात्म्य सुलभ कराने में समर्थ है । विज्ञान जिसे बाह्य धरा से आये दिव्य अनुभव कर एलियन कहता है और इस शब्द का पक्का प्रमाण ना होने पर भी इस शब्द के भरण-पोषण पर विज्ञान भाँति भाँति की सम्पदा व्यय करता है वहीं मेरी संस्कृति कहती है रसिक चरण भजो वह अवतरित सुधाकर है । श्रीहरिदास भजो वह अपरिमित मधुर श्रीनिकुँजविलासी माधुरी श्रीयुगल की प्राण-ललिता है । भावजगत सब धारणाओं से शिखर पर है क्योंकि क्या कभी विज्ञान को वह कथित मानवजीवन-रचियता अपने एलियन (कल्पना) दिव्य मधुर अप्राकृत अपरिमित अनन्त प्रीति भावित अलिवृन्द अनुभव हो सकेंगें । अपितु स्वर्ग के अग्निदेव - सुर्य आदि का साक्षात्कार विज्ञान ला सकेगा , जिनके संवाद शास्त्र में भरे हुये है । क्यों नही शास्त्र को ही शिखर पर मान कर भारतीय भावना स्वस्थ(स्वयं में स्थिर) होना नही चाहती ??? नव पीढी अपने को परजीवी (एलियन) के वंशज जानकर हर्षित है जबकि सप्तऋषी परम्परा से मिले गौत्र हम भूलना चाहते है । मानव सिद्ध-साध्य की एक सृष्टि है (रचना) और किसी यन्त्र ने मानव क्या स्वतंत्र जीवाणु की भी सृष्टि नही की है ।
हाँ अवतरण से ही मानव संचरित हुआ है परन्तु वह अवतरण मानव द्वारा अवतरित नही हुआ है वह जीवार्थ सेवार्थ अवतरण है (रसिक अवतरण - नित्यसिद्ध भगवदीय पार्षद) (भीतर के आकाश को पार करने पर खुलते क्रमश: चमत्कृत सुत्र अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्डो के पार नित्यवर्द्धित अपरिमित अखिल- नवमाधुर्य विपिनराज के विलास कौतुकों की बलिहार) तृषित ।
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी
यह भाव Ancient aliens जैसे कार्यक्रम की भारतीय धारणाओं के अपभृंश के प्रति है । जिसमें भगवान शिव-हनुमान आदि सभी को एलियन कह दिया गया है तब भी भारतीय शास्त्र में छिपे तथ्यों को पा-पाकर नही छोडा जा रहा है । ऐसे कार्यक्रम आधुनिक जीव को भृमित करते है भगवान को वैज्ञानिकों से एलियन जानकर वह हर्षित होकर भोगरूपी कीचड़ में लोट-पोट होता है (श्रद्धा ही भावना का द्वार खोलती है और श्रद्धाहीनता ही वह द्वार बन्द करती है) । स्वभाविक जीवन सन्तुलन का दूसरा नाम धर्म है ।
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