मान विलास - तृषित

*मान विलास*

स्वार्थ विवश वर्तमान जीव प्रीति से भावतः विमुख है , अति भोग और आधुनिकता में रुचि के कारण । पाश्चात्य स्थितियाँ प्रीति शून्य है ...लज्जाशून्य है । प्रीति में नित्य गाढ मधुता है , जो अनुभव होगी संस्कृति परम्परा के सँग से सजे जीवन मेंं , भविष्य के जीवन में ज्यों अभिव्यक्ति ही बढेगी तो अनुभव सिकुड़ रहा होगा । जीवन जितना पौराणिक अनुभव भरा होगा उतना सहज अनुभवों से भरा होगा । एक दो पीढी पूर्व लज्जा आदि प्रीति श्रृंगार समाजों में भरे हुये थे । अब वह घट रहे , सो प्रीति (सहज नायिका) के खेल अनुभव में नही हो सकेंगें । प्रीति में मान भ्रांतिवत् मान दृश्य है पर उसका प्रभाव भ्रांति नहीं है । प्रियाजू का मानिनी विलास एक सारँगता भरा सौंदर्य है अति कोमलता से नायिका का वह विलास नायक सन्मुख में प्रफुल्लता बढने या असमर्थता बढने पर दृश्य है । श्रीप्रिया अपने प्राण प्रियतम से कदापि रूठती या रुसती नही है । वह रोस एक नायिका का अपनी भाव स्थिति को छिपाने से खिला श्रृंगार भर है । सहज प्रेमी सदा अपनी प्रीति छिपाकर प्रेमास्पद के सुखों को ही सजाने में मग्न है । आधुनिकता स्वार्थमय होकर इस प्रीति के विपरित गतिमान है और प्रीति से रस तादाम्य होने पर यह प्रेम स्थिति किसी सहज स्वरूप में ही प्रकट हो सकती है , असहज कभी सहजता का सहज अभिनय भी नही कर सकता , परन्तु सहज श्रीप्रिया असहजता का जो विलास प्रकट करती वह ही मान दृश्य है , यह मान प्रेम कौतुकों का श्रृंगारक है । 

जीव कभी अपने अहंकार में दोष नही देख पाता । वह गलित होने के अवसर पर तर्क रख सकता है जैसा कि नव पीढी भारतीय रीति परम्परा और रसोई पर रखती है । सो जीव को प्रीति का स्पर्श कैसे होवें , जब वह अनुभव करें कि प्रियाजू मानिनी हो गई है और प्रियतम रिझावण में असमर्थ द्रवित हो रहे है तब जीव का अहम् एक साहचर्य होकर मिलन को सजाता है । 

लोक में भी बाहर सडक पर कोई प्रेमी युगल झगड पडे तो कोई अपरिचित सहचर हो कर उनके भेद को दूर कर सकते है अर्थात् युगल तत्व में भेद अरुचिकर बोध है । तदपि किन्हीं अपरिचित मार्गी को कोई युगल स्वरूप गहन मिलित स्थिति में मिलें , तब भी वह असहज हो सकता है ...उस मार्गी की मिलन से असहजता को सहज खेलने का ही खेल है दम्पति के मध्य कौतुक को सरल सहज श्रृंगार देकर मनाया जावें अर्थात मानलीला प्रीति-मनावन की लीला । साधक की स्थिति पर यह ललित क्रीड़ा अनुभवमय है ,  जीव स्थिति है तो इस तरह की क्रीड़ा में साधक का अहंकार भँग होकर मानिनी के मान से विवश हो प्रालाप (रुदन) कर उठता है , प्रियतम की व्याकुलता के चित्रण सँग । वस्तुतः वहाँ प्रियतम की वही मनुहार होना भक्तिमहारानी का सेवा-अर्चक होना है । भक्ति(महाभाव) वह आह्लाद है जिसका श्रीहरि(रसराज) और जीव(सेवक) मिलकर ही रस(निकुँजलीला) लें सकते है । निज हिय के आह्लाद को सरस आन्दोलित अनुभव चाहने हेतु ही निज प्रियता वांछित प्रेमी को श्रीहरि ने अपनी निजप्रियता (श्रीप्रिया) के सँग से भर दिया है । मिलन रस से जीव की दूरी मिटाने हेतु भी मान विलास गाया गया है शेष नित्यनिभृत विलासी युगल प्रियाप्रियतम में से सम्पुर्ण संकोच निकाल सहचरी (सखी) ने स्वयं के नयनों में भर लिया है । क्योंकि सँकोच या लज्जा प्रेम का सरस् नित्य श्रृंगार है और रसिक प्रियतम की तृषाओं के निदान हेतु लज्जा को सखियाँ स्वयं में सजा लेती है , जिससे विशुद्ध रसभाव सँग प्रियाप्रियतम का गहन मिलन हो सकें । मिलन की वहीं गहन वाँछा को छिपाकर रसिक रीति भरती है पथिक में मिलन-वाँछा भरे , मानविलास में जिसमें प्यारीजू में सहज नायिका होने से संकोच का दर्शन मान होकर और प्रियतम में सहज रस लोलुप्त भृमर होकर सहज कैंकर्य पीते हुये मनुहार तथा सखी में शेष  असहजताओं को चुगकर श्रीयुगल का सहज मिलन भरा है । लीला में रूचिवत सेवित श्रृंगार का स्वरूप-स्वभाव निवेदन किया जाता है सो असहजताओं में भी सहजता और सहजताओं में भी असहजता भरी हो सकती है ।

जीव का इष्टदेव पृथकत्व ही अहंकार वत स्व पूजित है ...वह अहंकार कह सकता है कि मुझे तो केवल प्रियतम सँग अपेक्षित है अथवा श्रीप्रिया सँग अपेक्षित या युगलसँग अपेक्षित है । रस रीतियाँ जीव के उस स्वभाव को अनुभव कर उन्हें सेवाओं में नियुक्त करती है , जिन्हें वें आवरणों सँग नहीं जुटा सकता ।  लालसा भीगी स्थिति को रसरीति का सँग ही अपेक्षित होवें सो रसिक रीति से वह पथिक परस्पर प्रियाप्रियतम को परस्पर सुख हेतू हियकुँज में चाह्वे तब ही वह सहज हिय वासित हो सकते है । प्रिया पद धरती है हिय की ओर परन्तु हियकुँज में प्रियतम और उनका सुख है तब ही ... । रसिक प्रियतम को जीव भले स्वीकार ना करता हो परन्तु उनकी आकुलित-व्याकुलित माधुरी के अनुभव से वह उन्हें हिय में भर सहज लाड दान देने लगता है , तब वह क्रमश: अनुभव करता है कि इस तृषा का निदान और उपचार केवल श्रीप्रिया है ...फिर हिय में महाभावित प्रियतम को लेकर वह स्थिति खोजती है बिहरती प्रेमोन्मादित सरस बिहारिणी । प्रियतम की व्याकुलता के श्रवण भर से श्रीबिहारिणी दौड पडती उस कुँज (हिय) की ओर । सो मानविलास मेरे मान का निदान है सखी , मेरे प्रियाप्रियतम अति भोरे कोमल नित सरस रसीले उनके मिलन को कोई नजर भी लग सकें , वह नज़र ही भगवती योगमाया ने नहीं रची । तृषित । मिलई रहो हमहिं पियप्यारी । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । सुन सकते है आप यहाँ मान विलास इस भाव सँग ...  मनुहारि करैं मनुहारि लला

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