निवृत्ति - तृषित
निवृति यह है...
रहीये अब ऐसी जगह चलकर, जहां कोई न हो
हम-सुखन कोई न हो और हम जुबां कोई न हो
बेदरो-दीवार सा इक घर बनाया चाहिये
कोई हमसाया न हो और पासबां कोई न हो
पड़ीये गर बीमार, तो कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जाईये, तो नौहा ख़वां कोई न हो
यहाँ बीमारी और मौत में भी सँग नही चाहा जा रहा क्योंकि *सँग* भीतर भरा है
जो उन्माद में भरकर यह मान लें कि मुझे कोई ना जाने और ना कोई माने वह निवृत्ति धर्म पर चल सकता है ।
शेष प्रवृति-धर्म है अर्थात् निवृति के अभिनय में प्रवृति वाँछा है वर्तमान परिवेश में
केवल अपने निज प्रेमास्पद का अखण्ड-अनन्य सुख हो जाने को ही किसी किसी का हृदय नित्य विलास में डूबकर शेष से निवृत्त हो पाता है ।
केवल सेज पर बैठी दुल्हन (नवलकिशोरी) स्थिति भीतर भरने पर मिले हुये उपहार पुरस्कार आदि की अपेक्षा भावना होती है मात्र प्रेमास्पद सुख वही हो हो सकता हमारे रस में निवृत्त पथिक ।
वरण इह लौकिक बहुत कुछ जब तक लुभा सकता हो निवृत्ति हुई नही ।
प्रेमी के ही पथ में प्रवृति सुंदरतम है और प्रेम में ही निवृत्ति श्रृंगारोत्तम निभृत रस है ।
शेष में निवृत्ति स्थिति साधन हो सकती है साध्य विश्राम सुख नही हो पाती ।
कहने का तात्पर्य एक दुल्हन जिस भाँति सेज पर सर्वत्र को छोड़कर सहज हो सकती वैसा किसी पदार्थ को छोडकर ज्ञानी भी नही हो सकते ।
क्या छोडा यह बोध होना भी प्रवृत्त होना ही है सो बहुतायत निवृत्त दृश्य होने पर भी प्रवृत्ति ही धर्म है ।
हृदय जब निवृत्ति चाहता है तब अपने पृथक् अस्तित्व को छुता ही नही है जिससे कोई सन्मुख होकर भी जान नहीं सकता ।
व्यव्हार में ऐसी कई स्थिति सन्मुख होती है जो स्वयं को प्रकृति से पृथक् सिद्ध नही करते अर्थात् जाना जावें - माना जावें यह नही चाहते । सो जनमानस उनकी समाधि को भंग नही कर पाता । क्योंकि मनसा नही है ।
ऐसी स्थितियां विचित्र लगती है उनमें एक कर्षण भी हो सकता है पर प्राणों का कर्षण अनुभव होने पर भी कर्षित नही हो पाते हम क्योंकि उनकी संरचना एक तटस्थ स्थिति पर है । ऐसी स्थिति केवल वास्तविक सँग का रसपान करती है ।
वृक्षों के विशाल समूह को वन कहते है
वन तब ही कहा जा सकता है वृक्ष-समूह को जब कोई वृक्ष पृथकता चाह्वे ही ना । मनुष्य अगर प्रवृत्त है तब वह प्रति वृक्ष की जाति जानना चाहेगा । दृष्टि आधार पर भिन्न-भिन्न करने पर उसे एक वन नही दिखेगा । कुछ जातियों के वृक्ष दिखेंगें ।
जबकि कोई पक्षी वृक्षों के नवीन रसों को लेते हुये भी उनके प्रति पृथकता ना निहारने से एक विशाल वन निहार सकेगा । अगर वृक्ष स्वयं को वन में अभिन्न कर सुखी है तब वह अपनी पृथकता या विशेषता को सिद्ध कर इस सहज उन्माद से छूटना स्वयं नही चाहेगा । निवृत्ति पथिक को स्वयं को ऐसे ही वनों में खोना होता है जिससे पृथकता की सिद्धि ही ना हो ।
सेवा-निवृत्ति शब्द सुना ही होगा । ऐसा नही है कि कोई विश्राम नही चाहता और ऐसा भी नही कि कोई विश्राम से उठना नही चाहता । समूचे दिन भर की थकान से सहज ही विश्राम मिल सकता है । सो स्थिति का सदुपयोग होने पर ही वास्तविक स्थिति (प्रवृत्ति और निवृत्ति) प्रकट होती है ।
मल में सने शिशु को देखकर अगर करुणा वशीभूत उसे स्नान कर पवित्र करने हेतु उठने की भावना होवें अर्थात् प्रवृत्ति है ।
कोई भी प्रकट दर्शन अगर चित्त विचलित ना करें अर्थात् निवृत्ति ।
निवृत्ति नित्य-अनुराग से और प्रवृत्ति नित्यवैराग्य से रस लेती है
प्रेम में डूबने के उपाय खोजते रहोगे तब इतने तूफां खुद पर माँगने होगें जितने सदियों में ना उठते हो
डूबने की ललक होने पर हर साँस और डूबाकर जाएगी ।
पर रसास्वादी होना रस का अनुभव पीने के लिये पृथक् होकर रहना ही इस रस वर्षा में पिघलने नही देती ।
और पिघलते रहने पर पिघलने के रस का अनुभव रस होकर होता है । जैसे सागर में बिन्दु होकर लहरों की उमगते झकोरे (भीतर बिन्दु होकर)
डूबने पर डूबना ही डूबना है
डूबने पर तर्क रखने पर डूबना छूटने से तर्क की पिटारी ही हाथ लगती है ।
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