सेवा और व्यापार - तृषित

सामर्थ्य हीन की सेवा सामर्थ्यवान सहज नही कर सकता
सो विधान असमर्थ को सेवक और समर्थ को स्वावलंबन हीन कर असमर्थ तक वस्तु पहुंचाने का संयोग प्रकट करता है
अपने छोटे छोटे घरेलु काज कराये बिना सहज सेवा वृति जिस लोक में ना हो । वह केवल भजन हेतु किसी भावुक की कैसे सेवा करेगा । सेवा और व्यापार में भेद है । सेवा वह है जिसमें कुछ लेने का उद्देश्य ना हो । आज प्राणी को प्रतिपल सेवक की माँग है क्योंकि सेवक को जीविका की माँग है जो कि उससे सेवा चाहें बिना देना असमर्थ ही है । इह लोक में धन की विवशता भाँति ही प्रीति विवशता है परन्तु उसके अनुभव हेतु इह-लौकिक द्रव्य से रति भंग होनी चाहिये । पारलौकिक प्रीति द्रव्य की सम्भाल ही बढ़नी चाहिये । तृषित । प्रीति देने से प्रीति बढती है प्रीति देना ही श्री (सेवा) दृश्य है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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