माधुर्य-ऐश्वर्य भक्ति तृषित

लोक में अपने सरकार पर अपना सब भार डाल दिया जाता है । और सरकार से केवल ऐश्वर्य भाव सँग ही सम्बंध रहता है । अर्थात् कामना पूर्ति भर ।
सरकार इह लौकिक हो अथवा पारलौकिक विशाल ऐश्वर्य देकर अपने विशाल दायित्व देकर कहा जाता है हमें सम्भालों ।

हम सोवेंगें आप जगते रहो । सोचिये देश के आदरणीय मोदी जी देश से बाहर निकलें हो सन्ध्या में पर वहाँ दिन हो तब यहाँ रात होने पर वहाँ सन्ध्या होने से वह सार्वजनिक कर्तव्यों से सौवेंगें कब । जैसा कि कल ही अनुभव किया कि मध्यरात्रि बाद वह फ्राँस में पत्रकारों के सन्मुख सभा सम्बोधन में थे । जबकि भारत में विश्रामकाल था । सरकार जग रही थी .. नागरिक सो रहे थे । मानिये किसी माँ का शिशु निजता से कुछ दूर ही रात्रि में (दूसरे कक्ष में ही हो तब क्या वह सो सकेगी)
      ऐश्वर्य अनुभवी निजभोग लाभ आदि से ही नमन करता है । माधुर्य अनुभवी यही कहेगा कि होंगें आप भले ईश्वर पर अभी आपको मेरे लिये झूला झूलना है अथवा विश्राम करना है । (माधुर्य में प्रेमास्पद का ऐश्वर्य का अनुभव अति गहन और निकट होने पर भी दृश्य मधुरता ही होती है)

जैसा कि एक राजा का निज परिजन सबसे ज्यादा जानते है कि कितना वैभव खजाना आदि है परन्तु वहाँ केवल प्रीति है तब परिजन केवल उनके (राज) सुखों की चिंता रहती है , वैभव होने पर भी वह केवल सेवा होता है उसका पृथक् महत्व चिंतनिय होता ही नही है । वही जो राजा के निज नही है वह उस राज-वैभव को ही नमन करते है । राज छूटने पर प्रीति छुटना अर्थात्  वह अर्थ प्रीति है ऐश्वर्य उपासना ।
(ऐसे पथिक लाभ अनुभव सँग इष्ट बदल लेते है , जबकि वास्त्विकता में इष्ट ही सेवक चुनते है नाकि सेवक स्वामी को चुनता है)

सो ऐश्वर्य उपासक के लिये जीवार्थ लीला है ।
और नित्य मधुता की लेन देन में भरे प्रेमी के पास केवल सरकार के सुखों का भार है । जैसे लोक में माँ को ऐश्वर्य या लाभ-हानि सफलता-असफलता आदि से अर्थ ना होकर आहार-विहार के सुख की चिंता रहती ।
बालक कितना की नटखट हो माँ के लिये उससे भोलाभाला कुछ नही । जबकि अन्य के बालक को सँग पाकर सभी अपना सामान छिपा लेते है और प्रेम में माँ आभूषण भी माँगने पर खेलने को दे देती है ,कभी-कभी बालक से वह खो भी जाते है जिसके परिणाम में ऐश्वर्यमुखी परिजन जो मधुता नही देख पा रहे वह उस माँ से आभूषण खोने पर रुष्ट भी होते है ।

उपासक को कुछ चाहिये तो वह लेने के लिये चल रहा है ऐसे में वह ईश्वर सँग चाहता है

उपासक को निजप्राण से अधिक श्रीप्रियतमवत् स्वयं को बारम्बार देने का उन्माद है वह उनके सुख खोज रहा है तब वह माधुर्य पथिक है ।

(और जहाँ श्रीप्रेमास्पद प्राणसरकार के विलाससुखों का विशाल वन प्रकट है वह श्रीवृन्दावन है )
(उनके समस्त भार भुलकर उन्हें समस्त विलास में नित्य रखना ही कुँज-निकुँज उपासना है , उन्हें केवल उनका सुख-वर्धन और उनका निजविलास-वर्धन अपेक्षित है , इस दशा में निजसेवा वृति होने से वह भावना (सखी) केवल उनके सुख का वर्धन अनुभव कर ही पुष्टि-तुष्टि चाहती है । सर्वतोभावेन श्रीप्राणधन का और और रसभाव गाढ होना ही निज रससेवा का वर्धन ही ऐसी निकुँज सेविका का नित्य जीवन है । तृषित ।

(बाह्य उदाहरण ऐश्वर्य और  माधुर्य को समझने भर के लिये)

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