भोग सेवा शुद्धि - तृषित

दूध आदि पदार्थ शुद्ध रूप पाने हेतु एक ही उपाय है कि उन्हें भगवत सेवा हेतु ग्रहण किया जावें ।
अगर किसी नदी का जल भी शुद्ध चाहिये तब भोले बाबा को अर्पण होगा यह भाव स्थिर रखते हुये सँग करोगें तब अपनी ओर से अतिरिक्त अशुद्ध करने का विचार नही आयेगा ।

वैचारिक अशुद्धि से पदार्थ आदि दूषित है ।
वैचारिक शुद्धि से सब शुद्ध मिल सकेगा

भगवत सेवा का प्रकट अभाव होने पर भोग अग्नि को अर्पित कर पाने का विधान है ।
पदार्थ को अर्पण नही करने से ही उस तत्व के देवता उसकी शुद्धि आदि स्थिती का अनुभव नही लें पाते है ।
जो शक्ति भोग हेतु ही प्रकट होती है उन्हें भोग नित्य देने भोग की तत्वत: पवित्रता रह सकती है ...जैसे धाम तत्व और प्रियतम का सम्मिलित स्वरूप श्रीगोवर्धननाथ जी

श्रीगोवर्धन को अर्पित दुग्ध में शिला अर्पण होने से शुद्ध भाव रहे तब उसमें 70 से 90 प्रतिशत पानी नही मिलाया जा सकता है ।
भले मात्रा न्यून हो परन्तु भावुक प्राणनाथ को विशुद्ध रस ही देना चाह्वेगा

क्या भावुक मिलावट ही माँग रहे अगर नही तब वह विशुद्ध भोगरस सेवा लालसा में रहें । सेवार्थ उठी यह लालसा ही श्रीधरा को प्रफुल्ल करेगी । धराशक्ति में रूदन रस प्रकट होता है जैसा कि माँ में ।

ऊपर दुग्ध में पानी लिखा है , जल नही क्योंकि ऐसे भावुकों किसी रस सुधा या सरिता (कालिन्दी) का जल मिलाने की लालसा नही हुई है । वह पानी मिलाकर ही भोग अर्पण करते है ।
जल चेतन शब्द है । पानी जड़ भाषा में प्रयुक्त है ।

जिस स्वरूप में भी भगवत भाव होवें वह नित्य रहे इस हेतु उन्हें सेवा वैसे ही अर्पण करनी है जैसे श्रीप्रभू को । जैसा कि गौ को प्रथम निवेदन है । वह प्राणी का झूठा पाती है तब प्राणी की अपने भाव मार्ग की हानि है । कोशिश यही होवें कि भगवत निवेदन प्रसाद अथवा अमनिया ही वह पावें । हृदय की निर्मलता से ही सभी खेल है । सेवक को अति आतुर होकर अति सेवक होकर सेवा निवेदन करनी चाहिये जैसे शबरी ।

जिस भाँति शबरी को बेर सेवा में मधुता की ललक हुई वैसे ही ललक आज प्राणी में होवें तब वह सेवा में जानकर मिलावट काहें करेगें । सेवा की मात्रा के पीछे कामना है वरण एक चम्मच शुद्ध दुग्ध भी अर्पण किया जा सकता है ।
जिनके पास श्रीलड्डू गोपाल की सेवा है वह भी भोग में दुग्ध अर्पण करें अथवा अभिषेक करें
हृदय में सेवक स्थिति स्थिर रहे तब स्वामी के सुख की सेवा हो सकें

अभी सेवा में ईमानदारी नही है । कृषक से अर्चक तक और प्रसाद के लिये लोलुप्त तक जो सेवाओं का चक्र है वह भगवत सेवा लक्ष्य से ही सेवामय होवें तब सभी पदार्थ विशुद्ध प्रसादवत मिलते रहेंगे ,  हमारे यहाँ यही क्रम था । सेवा हेतु  शृंखला रही है ।

भगवत् विस्मृति से ही असत की मार झेलनी पड रही है । भगवत् स्मृति के स्थिर होने से सत्य का सँग शुद्ध होता जाता है जिससे अपनी अपनी सेवा में शुद्धि सम्भव है जबकि भावपथ के लोलुप्त या सेवक की अर्पित सेवा तक में छद्म (मिलावट) है ।

अगर अद्वेत ब्रह्म वैदिक उपासी है तो भोगसेवा अग्नि को भोग दिया जावें ।
शैव शिवार्पण करते रहे । वैष्णव वासुदेव को अर्पण करते रहे ।
धरा के सभी सनातन पथिक गौ को अर्पण कर सकते है

वस्तु में प्रसाद तत्व हो । प्रसाद तत्व की वर्धन हेतु प्रसादी को वितरण अति उत्स स्थिति से किया जावें । (प्रसाद सँग भी कृपणता होने पर वह भावपुष्टि में साहायक नही हो पाता , प्रसाद पर उदार हृदय का अधिकार है जो खुल कर वितरण कर सकें)
हृदय को अनन्त रसीले प्राण पर अनन्त कर लुटाने की लालसा भर से अनन्त रस लुटाने के लिये सुलभ होता रहता है । सर्व प्रथम तो हृदय ही लुटाना होगा ।

सेवार्थ ही भोग शुद्धि होती है
कोई तत्व आवरण सँग रसीले सरकार का सँग नही कर सकता । धरा से अमृत सरिता उच्छलित हो सकती है । अगर सेवा लालसा व्यापक होवें ।

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