विचार कर कहें
पोस्ट बडी है पर पढियें ...
अहंकार का आदि है मानव |
छुटता नहीं , छोडता नहीं नाम बदल लेता है कई बार गर्व कहता है |
सेल्फ रेस्पेक्ट कहता है ...
युं मै टीवी चैनल पर आने वाली कथा कम सुनता हूँ | कई कारण है , सर्व सामान्य कारण यें है कि शायद समझता नहीं | कई बार देखा सुना है कि वैसे प्रसंग ज्यादा चल रहे है जहाँ देवताओं भगवान और पार्षदों को अहंकार हुआ | जैसे गरुड जी का अभिमान , सुदर्शन जी का अभिमान नारद जी अभिमान | हनुमान जी का अभिमान आदि ... आप विचार करें आप जिसे गर्व कहते है ... पुराण वहाँ अभिमान -अहंकार ही लिखते है | भगवान से अति प्रेम और उनकी विशेष सेवा कर पाना हम गर्व ही कहेंगें | गर्वित होंगें कि अवसर मिला पर भगवान वहाँ भी अहंकार ही सम्बोधित करते है |
जैसे गरुड जी , सुदर्शन भगवान |
महारास में गोपियों का अभिमान | और प्रसंग के आगे प्रसंग बढाते हुये कुछ विद्वान राधा जी के अहंकार की कथा कर जाते है ...
यहीं से ना कहने के इस विषय को कहना चाहा , राधा जी का अहंकार ... कृष्ण केवल मेरे है यें जान उनका कहना की आपके सीने पर ही चरण बढाऊंगी | ऐसा प्रसंग सुना टीवी पर एक कथा में ... मैंनें कुछ देर ही सुना कि क्या यहाँ
गोपियों के राधा जी के जिस अहंकार को कहा जा रहा है क्या उन प्रसंग को वापिस विश्वास पर लाया जायेगा | राधा जी के प्रति अति प्रेम भक्ति पुर्ण श्रोता तो जान लेगें अनकही . पर क्या साधारण श्रोता सही अर्थ लेगा |
अजी , बडे - बडे देवताओं को अहंकार हुआ | ब्रह्मा-विष्णु-महेश के प्रसंग है , महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वति के प्रसंग है , तो हम क्या चीज़ है | यें कह कर बहुतों ने मानसिकता गढ ली | अब आगे आप लाख बार कहो कि सरल हो जाओ , संत हो जाओ , वैराग ले लो पर तब भी अहंकार होगा तो भला क्युं और कैसे सरल हो | संत कहते है , देवता कहते है कि गोपी महाभाव है , परम् भाव है महादुर्लभ कृपा से ही सम्भव है | ... विकार रहित है , भक्ति की पराकाष्टा है , समर्पण-भगवत्प्रेम का संयोग है , यहाँ सांसारिकता तिरोहित हो जाती है | स्वसुख - स्वान्त: सुख का भाव ही नही ... तत्सुखाय का अविरल भाव
है | सामान्य जीव गोपीभाव को समझ ही नहीं सकता , गोपी वह शक्ति है जो ब्रह्म के लिये ब्रह्म से ब्रह्म हेतु ब्रह्म की अभुत्पुर्व लीला की मुख्यनायिकायें है | जो ईश्वर को नचा सके उनके किसी एक गुण पर निरन्तर अश्रुवर्षा से आजीवन कहा जा सके तो भी असीमता कम ना हो | नि:स्वार्थ निश्चल प्रेम ||
श्री जु राधा के विषय में तो अहंकार को कहना अनुचित ही नहीं महापाप है ...
राधा जिनके लिये व्यास शब्द ना जुटा सके , जितने रसिक कृपापात्र हुये वें बौरा ही गये | संसार के लिये कमलरुपी हो गये , भगवत्दर्शन - सेवा कर पाये , केवल मात्र कृपा से | कृष्ण को कोई जान सके और राधा को ना समझे अचम्भित करता
है , दशम् स्कन्ध उत्तरार्ध के अनुकर्ता अर्थात् कृष्ण को वेदान्ती से महानायक - योगेश्वर ध्याने वाले भक्त भी राधा - कृष्ण के अभेद को जानते है तो प्रेम लीला की कथा में वह तथ्य क्युं नहीं कहते विद्वान | अहंकार , तो बता देते है उसके रहस्य कारण को
को भी बताये ... वरन् अश्रद्धा बलवती होती है | ...
मैंनें कई बार वक्ताओं को कहा कि आप रहस्य भी कहें , वरन् गोपी भी अहंकार कर सकती है तो कौन गोपीभाव को मानना चाहेगा | उस अवस्था में नहीं हमारी जड बुद्धि में अहंकार है | भगवान और उनके प्रिय से प्रिय भक्त दोनों की अभिव्यक्ति-गुण-रहस्य समान ही है | भक्त और भगवान में बस एक अंतर है जो सागर और उसकी बुंद में है | स्वाद - गुण एक ही है बस | भक्त और संत भगवान का ही सुक्ष्म स्पष्ट अंश है |
अब कई संत-भक्तों के लिये विषय अनुचित सा है | विचार करें , नारद जी ...परम् भक्त , परम् हरिप्रिय | नारद जी की भाव अभिव्यक्ति भक्तिसुत्र से अनुभत की जा सकती है | भगवान का उनसे प्रेम इस बात से समझा जा सकता है कि वें त्रिभुवन में सहज भ्रमण करते ... आनन्दित रहते | एक लीला के क्रम को दूसरे जोडते हुये आगे बढाते | भक्तिसुत्र के 100 लघु सुत्र उनकी भाव-भक्ति का अलग चित्रण करती है | आज नारद जी को जैसे प्रस्तुत किया जाता है वों हरि को कष्ट नहीं देता होगा | विचार करियें नारद नाम सुनकर क्या भावप्रखर हो पाते है , नहीं ना
विद्वान भी अगर भक्तिसुत्र को नारद जी के नाम हटा कर पढें तो चौंक कर कह देंगें किनकी रचना है ?? पर देखिये हास्य-उपहास का पर्याय से नारद , प्रह्लाद-ध्रुव के गुरु है | बाल अवस्था में जो यें पायें वो युगों में पाना असहज था | निष्ठा के साथ गुरु-आशिष भी रहा | नारायण के मन रुपी नारद |
हनुमान | अर्थात् अभिमान ना हो | मान ना हो | हरि की अनुभुति में स्वयं का बोध ही ना हो | ... अब इन परम् दिव्य भक्त की दिव्यता कौन नहीं जानता | आश्चर्य हुआ जब किन्हीं महानुभाव ने इन्हें अहंकार हुआ यें प्रसंग पढा ... खैर , वो विषय चर्चायोग्य नहीं ||
हनुमान सदा राममय है | और अपनी राम भक्ति से ही अतुलित बलधाम हुये है | श्रीराम तक कष्ट पहुंचने ही नहीं देते | निराकरण कर देते है | राम नाम की महिमा को अभिव्यक्त करने हेतु वें असामान्य समस्या जिसे राम मर्यादित होने से स्वयं
भी ना करें हनुमान उसे भी रामनाम हेतु सहज कर देते है | इनकी आगे चर्चा कभी बाद में करेंगें |
प्रभु-देवत्व में दोष दिखता हो तो विनति करें , हम दोष त्याग नहीं सकते सो वहाँ भी दोष आरोपित कर देते है | राधा जी पर चर्चा करते रहेंगें | ध्यान रहे कुछ ऐसा ना कहे या विचारे कि मोहन
को कष्ट हो | समस्या यें है कि राधा-रहस्य जान कर भी कहा नहीं जा सकता ...शब्द होते नहीं ... अनुभुति ही है वें प्रेमा अतिसुकुमारी |
प्रेम के इस विग्रह हेतु स्वयं कृष्ण , व्यास जी सब शब्दहीन है सो उनके नाम ही है - -:
... शब्दसारा , शब्दातीता ||
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एक पुराने लेख "रास" का यें भाग फिर पढें ...
साधना के दो भेद है-
मर्यादापूर्ण वैध साधना.
मर्यादारहित अवैध प्रेम साधना.
दोनों के ही अपने अपने स्वतंत्र नियम है.
मर्यादापूर्ण वैध साधना - वैध साधना में, जैसे नियमों के बंधन का, सनातन पद्धति का, कर्तव्यों का, और विविध पालनीय कर्मो का त्याग, साधना से भ्रष्ट करने वाला और महान हानिकर है.
मर्यादारहित अवैध प्रेम साधना- अवैध प्रेम साधना में इनका पालन कलंक रूप होता है, यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नति के साधनों को वह अवैध प्रेमासाधना का साधक जान बूझकर छोड़ देता है, बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है ये वहाँ अपने–आप वैसे ही छूट जाते है जैसे नदी के पार पहुँच जाने पर स्वाभाविक ही नौका की सवारी छूट जाती है.
भगवान ने गीता में कहा है- “ सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ”.
‘हे अर्जुन! तू सारे धर्मो का त्याग करके केवल एक मेरी शरण में आ जा’.
श्रीगोपीजन साधना के इसी उच्च स्तर में परम आदर्श थी इसी से उन्होंने देह-गेह, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्म – सबको छोडकर, सबका उल्लघन कर एक मात्र परमधर्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को ही पाने के लिए अभिसार किया था उनका यह पति-पुत्रो का त्याग यह सर्वधर्म का त्याग ही उनके स्तर के अनुरूप “स्वधर्म” है. इस सर्वधर्म त्याग रूप स्वधर्म का आचरण गोपियों जैसे उच्च स्तर के साधको में ही संभव है क्योकि सब धर्मो का यह त्याग वही कर सकता है जो इसका यथाविधि पूरा पालन कर चुकने के बाद इसके परमफल अनन्य और अचिन्त्य, देवदुर्लभ, भगवत्प्रेम को प्राप्त कर चुका है. वे भी जान बूझकर त्याग नहीं करते. सूर्ये का प्रखर प्रकाश हो जाने पर तेल दीपक की भांति स्वतः ही ये धर्म, उसे त्याग देते है जिसको भगवान अपनी वंशी ध्वनि सुनाकर – नाम ले-लेकर बुलाये वह भला किसी दूसरे धर्म की ओर ताककर कब और कैसे रुक सकता है .
भगवान का अंतर्धान होना – वियोग ही संयोग का पोषक है. मान और मद ही भगवान की लीला में बाँधक है भगवान की दिव्यलीला में मान और मद भी, जो कि दिव्य है इसलिए होते है कि उनसे लीला में रस की और भी पुष्टि हो. भगवान की इच्छा से ही गोपियों में लीलानुरूप मान और मद का संचार हुआ और भगवान अंतर्धान हो गये. जिनके ह्रदय में लेशमात्र भी मद अवशेष है नाममात्र भी मान का संस्कार शेष है वे भगवान के सम्मुख रहने के अधिकारी नहीं वे भगवान का, पास रहने पर भी दर्शन नहीं कर सकते .परन्तु गोपियाँ तो, गोपियाँ थी उनसे जगत के किसी प्राणी की तिलमात्र भी तुलना नहीं है भगवान के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई इस बात को रासलीला का प्रत्येक पाठक जानता है गोपियों के शरीर-मन-प्राण - वे जो कुछ थी, सब श्रीकृष्ण में एकतान हो गये. उनके प्रेमोन्माद का वह गीत - जो उनके प्राणों का प्रत्यक्ष प्रतीक है गोपियों के उस ‘महाभाव’ उस ‘अलौकिक प्रेमोन्माद’ को देखकर श्रीकृष्ण भी अन्तर्हित न रह सके उनके सामने ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ:’ रूप से प्रकट हुए.
भगवान ने स्वयं कहा –गोपियों मेरे अंतर्धान होने का प्रयोजन तुम्हारे चित्त को दुखान नहीं था बल्कि तुम्हारे प्रेम को और भी उज्जवल और समृद्ध करना था. जब राम अवतार में जनकपुरी कि सखिया राम चंद्र जी को देखती है तो वे मन-ही मन भगवान को पाने की इच्छा करती है और जब भगवान राम वन गये तो अनेकोनेक ऋषि-मुनि आदि उनके रूप को देखकर सोचते थे कि हमारा भी भगवान के साथ विहार हो.
भगवान ने उनके मनोभावो को जानकर कहा - कि इस अवतार में तो मैं मर्यादा पुरुषोतम हूँ, पर अगले अवतार में सबकी मनोकामना पूर्ण करूँगा ये गोपियाँ वही दण्डकारण्य के ऋषि मुनि थे, जिनका जीवन, साधना की चरम सीमा पर पहुँच चुका है. जिन्होंने कल्पों तक साधना करके श्रीकृष्ण की कृपा से उनका सेवाधिकार प्राप्त कर लिया है.
वे ही गोपियाँ कैसे, भगवान के बुलाने पर न जाती. शुकदेव जी ने परीक्षित जी को उत्तर देकर शंकाएँ तो हटा दी परन्तु भगवान की दिव्यलीला का रहस्य नहीं खुलने पाया, संभवतः उस रहस्य को गुप्त रखने के लिए ही ३३वे अध्याय में रासलीला प्रसंग समाप्त कर दिया गया. वस्तुतः इस लीला के गूढ़ रहस्य की प्राकृत जगत में व्याख्या की भी नहीं जा सकती.क्योकि यह इस जगत की क्रीडा ही नहीं है . ...
जय जय श्री राधे
राधा जी के पारलौकिक मर्म , रसिक संतों के विचारों
को धर्म-आचरण के अक्टुबर-नवम्बर 2014 के पोस्टस् में
पढें|
कभी-कभी कडवा कह जाता हूँ !! क्षमा करें !! सत्यजीत "तृषित"
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