पार्षद

प्रश्न आया गरुड जैसा पक्षी किसीने देखा है ?

क्या आपने मन को देखा है | मन ही गरुड है |
मन को नियन्त्रित कर विराजने वाले नारायण
आत्मा रुपी परमात्मा है | आत्मा और मन अर्थात्
गरुड-नारायण या | आत्मा मन पर सवार हो कर ही
लक्ष्य भेद सकती है |
विचित्र संरचना के कारण भारतीय देवताओं को
एशियन एलियन्ट के विज्ञानी इन्हें दूसरे किसी ग्रह का
जीव मान रहा है | एलियन | हनुमान जी - गणेश जी
सहित कई हमारे भारतीय देवता एलियन लगते है | वें उनकेहोने को नकार नहीं रहे सबुत मिलें है | पर दिख नहीं रहे सो एलियन | हममें से किसी ने डायनासोर
नहीं देखा पर हम उनके किसी समय में होने को
नकार नहीं सकते | जबकि कहा जा सकता है
यें तो पुराणों में वर्णित दैत्य है | पुराण पहले से
हमारे हाथ में है , वेद भी | अवशेष बाद में मिले
परन्तु फिर भी हम कह नहीं पाये कि ऐसे जीवों
को तो हर भारतीय जानता है | और गरुड जैसे
दिखने वाले प्राणी हालीवुड फिल्मों में नकल
स्वरुप ही है |
गरुड जी या ऐसा कुछ दिख जाये तो क्या उसे उडने
वाला डायनासोर नहीं कहा जायेगा |

नारायण के पार्षद है गरुड | सुदर्शन भगवान की
भांति | गरुड पुराण एक आध्यात्मिक -भक्ति ग्रन्थ
है और इसके प्रेतकल्प का पाठ ही प्रचलन में है |
जीवात्मा की शांति हेतु |
गरुड अर्थात् मन के प्रश्न नारायण अर्थात् आत्मतत्व को जानने को | ...
पार्षद भगवान के सेवक है | वें स्वरुप से नारायण
से ही है | सुदर्शन भगवान का साकार रुप नारायण
सा ही होगा | कारण जिसे प्रभु स्वीकारते है वें उनसा
हो ही जाता है | पारस है वें |
कई मतों में सुदर्शन आदि पार्षदों का विशेष अर्चन
है | यहाँ वहीं कारण है जैसे किसी मन्त्री से मिलने हेतु
उनके सलाहकार से मित्रता | जो आवश्यक नहीं है |
दूसरा भाव यें है कि आप हमारे भगवान के विशेष प्रिय
है | आप उनकी सेवा में है | आप सदा उनके सानिध्यता
में है | आप जैसे भाव हमारे भी हो जायें , दुर्लभतम्
सेवा है आपकी | बडी ही तत्परता | और आप उनके सानिध्य में उनके गुण-चरित्रों को अंगीकार कर लिये है |
भगवान के हेतु ही आप उनके आवरण रुपी है |
शेष भगवान तो तनिक भी प्रभु को अकेले जाने
नहीं देते | सेवा मुक्त होना ही नहीं चाहते | प्रभु भाव
के आगे परास्त हो ही जाते है | शेषभगवान भी
भगवान भांति ही तेजोमय सुन्दर है | भगवान की
आभा ही भगवान गुणों भावों से नहला देती है |
भगवान जिसे स्वीकारते है वहीं पुर्ण हो जाता है |
अपुर्ण नहीं रहता | कई संतों के पास भगवत् सानिध्यता अनुभव होती है | मौन भी लगता है वैकुण्ठ ही हो |
है | भगवान में जो डुबा उसे वें रंग देते है | अपने में
कहने की आवश्यकता नहीं की डुब रहा हूँ तुममें | सम्भाल लेना | कह कर नहीं चाह कर चाहों |
समा जाओ उनमें की जब कुछ बाहर निकले तो वें
ही निकलें तुम उनसे हटो ही ना | आप उनके हुये
सब तृष्णा - सब लालसा बिसारी कि वें भगवत्ता
ही उतार कर दे डालते है | और स्वयं रुप ले लेकर सेवक हो जाते है |
परन्तु चाह से नहीं समर्पण से | सुदर्शन भगवान सब
काज पुर्ण कर सकते है जब सारे अस्त्र-शस्त्र निश्फल
हो तो सुदर्शन जी वहाँ कारगर है | वें हरि ही नहीं
हरि-प्रिय के भी आवरण है | उनकी शक्ति प्रभु से है
वें प्रभु के ही सुरक्षात्मक स्वरुप है | हाँ है प्रभु और
प्रभु-प्रिय हेतु | भजन - सेवा में हो रही आन्तरिक
और बाहरी बाधा के दमन हेतु |
श्री कृष्ण ने बाल स्वरुप में राक्षसों का वध मारने हेतु
की भावना से नहीं किया होगा | हाँ खेल -खेल में
ही लीला कर डाली | भाव क्रोध का ना आया |
ऐसा ही आगे रहा | बहाने बनायें पर सरलता ना त्यागी|
रणछोड हुये | जरासंध से भी ख़ुद ना लडें |
ऐसे ही शिशुपाल को वें १०० क्षमादान दें दिये |
शिशुपाल ९९ अपराध कर बच सकता था | वों करता
गया | क्योंकि वो जान गया कि इन्हें  अपराध बोध
होता ही नहीं | पल भर में निर्गुण हो जाते है और
दिखावा सगुण का होता है | प्रतिज्ञा की बात नहीं
थी , प्रतिज्ञा तो महाभारत में भी तोडी थी | प्रतिज्ञा
वहाँ होती है जहाँ मान का बोध हो वहाँ भक्त हेतु
तोडी | भीष्म पितामह की एक गलती ना सहने वाले
कृष्ण कैसे शिशुपाल को सहते गये | वें सहते रहते
अपने मान-सम्मान की जरा भी फिक्र नही उन्हें |
उन्हें प्रतिक्षा है तो समर्पण की | वें जगत्पिता है |
प्रति श्वांस में नविन जगत उत्पन्न कर सकते है |
परन्तु अपनी कृति से प्रेम तो है उन्हें | माता - पिता
आज भी अपने शिशु पाल कर उसका अपराध सहते है | १०० क्षमादान उनका १०० गुणा प्रेम था |
शिशुपाल मान लेता कि मैं तो शिशु हूँ उसका प्रेम
जाग जाता तो वो मुक्त हो ही जाता | प्रभु बडे ही
क्षमाशील है वें निर्विरोध सह लेते है | कारण कुछ
भी वें दें पर प्रेम बहुत करते है |
यहाँ सुदर्शन भगवान् भी प्रतिक्षा में है |
भगवान के विपरित विचार मात्र पर क्रियान्वित हो
जाने वाले सुदर्शन जी को 100 बार भगवत् विरोधी
पीडा सहना कष्ट दे रहा होगा | वें नहीं सह पा रहे
होगें उनका प्रेम हृदय से है , वें सहर्ष भगवान के आवरण है | भगवान और सह जाते , तिरोहित होना
जानते है वें | उनमें मानवीय आवेग भी नहीं | परन्तु
अपने सुदर्शन को भी वें कष्ट नहीं दे सकते थे |
सुदर्शन जी को अपनी असहनीय पीडा का निराकरण
करना था | वें संकेत मात्र से संख्या पूरी होते ही
विनाश कर दियें | हरि ने इसे स्वयं पर तत्क्षण ले
लिया | सुदर्शन जी के भावआवेग पर किसी का
ध्यान नहीं गया | शिशुपाल अब भी क्षमापात्र था वरन्
उसकी आत्मज्योति कैसे वें अपने में समाते |
१०० पीडा जनक वचन उसे परम् पद गामी बना
गये |
आप संतों में यें तिरोहित भाव देख सकते है | वें
कहीं बहस हो तो टाल जाते है | संसारिक झगडें
नहीं भजनानन्द में रुकावट के आन्तरिक झगडे
ही बहुत है उनके | परन्तु शिष्य सह नहीं
पाते | गुरुआज्ञा लिये बिना कई बार देखा है गुरु
अपमान का प्रतिशोध लेते देखा जा सकता है |
सत्यजीत "तृषित"
... ... ...

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